फ़िल्म-समीक्षा
इस फ़िल्म के बारे में आवश्यक जानकारियां आप इन दो लिंक्स् पर क्लिक करके देख सकते हैं -
IMDb
Wikipedia
हीरो काली है, हीरोइन मीरा है, और एक गाना है-‘रंग दे तू मोहे गेरुआ.....’
फ़िल्म धार्मिक लगती है। जहां धर्म है वहां कहीं न कहीं आस-पास धर्मनिरपेक्षता भी होनी चाहिए। दोनों सगे भाई-बहिन हैं।
देखते हैं, इंतज़ार करते हैं। तब तक-
शुरुआत में अजीब लगता है कि एक लड़की इतनी सहजता से एक गैंगस्टर के साथ प्रेम कैसे कर सकती है ?
यूं यह तो कई बार देखा है कि लड़के-लड़कियां अकसर सफ़ल बेईमानों के साथ ख़ुदको ज़्यादा सहज और सेफ़ महसूस करते हैं।
लीजिए, पता चलता है कि लड़की भी गैंगस्टर है।
न सिर्फ़ गैंगस्टर हैं बल्कि दोनो ही ख़ानदानी गैंगस्टर हैं।
गैंगस्टरी से लेकर शायरी तक में ख़ानदानियों की बात ही कुछ और है।
गैंगस्टर्स का सेंस ऑफ़ ह्यूमर काफ़ी अच्छा दिखाया गया है। हो सकता है। नॉन-गैंगस्टर्स ने इसका ठेका थोड़े ले रखा है।
इंटरवल से कुछ पहले मीरा, काली को मारनेवाली है कि अचानक छोड़ देती है। पता चला कि आज उसका बर्थडे है। ये गैंगस्टर्स भी कर्मकांडों के कितने पक्के होते हैं। दुनिया-भर के नियम-क़ानून तोड़ते हैं, हड्डियां, दांत और कारें तोड़ते हैं, मगर कर्मकांड....
सेंस ऑफ़ ह्यूमर के अलावा ये इनकी दूसरी महानता या पवित्रता है जो इस फ़िल्म के ज़रिए प्रकट भई है।
अंततः मीरा और काली तीसरी बार टकराते हैं।
ऐसे संयोग या तो फ़िल्मों में होते हैं या धार्मिक कथाओं में।
गैंगस्टर्स की दुनिया इतनी छोटी होती है क्या !?
लगता है ये अपनी सारी उम्र किसी एक ही गली में काट देते हैं।
और वहां घर-घर चलनेवाली सत्यनारायन की कथाओं में आए दिन अचानक आमने-सामने पड़ जाते हैं।
फ़िल्म में अब तक धर्मनिरपेक्षता दिखाई नहीं दी!? ऐसे कैसे चलेगा?
अंत में मुझे लगता है कि फ़िल्म के बहाने मैं किसी ऐसे तथाकथित लोकतांत्रिक देश का परिदृश्य देख रहा हूं जहां के नागरिकों के पास दो-तीन ही ऑप्शन होते हैं-काली, मीरा और किंग। तीनों ही गैंगस्टर हैं। हीरो भी इन्हीं में से चुनना है, विलेन भी और कॉमेडियन भी।
चुनना है चुनो वरना भाड़ में जाओ!
-संजय ग्रोवर
19-12-2015
(मन हुआ तो ‘रंग दे गेरुआ’ पर एक लेख अलग से, ‘नास्तिकTheAtheist’ में)
इस फ़िल्म के बारे में आवश्यक जानकारियां आप इन दो लिंक्स् पर क्लिक करके देख सकते हैं -
IMDb
Wikipedia
हीरो काली है, हीरोइन मीरा है, और एक गाना है-‘रंग दे तू मोहे गेरुआ.....’
फ़िल्म धार्मिक लगती है। जहां धर्म है वहां कहीं न कहीं आस-पास धर्मनिरपेक्षता भी होनी चाहिए। दोनों सगे भाई-बहिन हैं।
देखते हैं, इंतज़ार करते हैं। तब तक-
शुरुआत में अजीब लगता है कि एक लड़की इतनी सहजता से एक गैंगस्टर के साथ प्रेम कैसे कर सकती है ?
यूं यह तो कई बार देखा है कि लड़के-लड़कियां अकसर सफ़ल बेईमानों के साथ ख़ुदको ज़्यादा सहज और सेफ़ महसूस करते हैं।
लीजिए, पता चलता है कि लड़की भी गैंगस्टर है।
न सिर्फ़ गैंगस्टर हैं बल्कि दोनो ही ख़ानदानी गैंगस्टर हैं।
गैंगस्टरी से लेकर शायरी तक में ख़ानदानियों की बात ही कुछ और है।
गैंगस्टर्स का सेंस ऑफ़ ह्यूमर काफ़ी अच्छा दिखाया गया है। हो सकता है। नॉन-गैंगस्टर्स ने इसका ठेका थोड़े ले रखा है।
इंटरवल से कुछ पहले मीरा, काली को मारनेवाली है कि अचानक छोड़ देती है। पता चला कि आज उसका बर्थडे है। ये गैंगस्टर्स भी कर्मकांडों के कितने पक्के होते हैं। दुनिया-भर के नियम-क़ानून तोड़ते हैं, हड्डियां, दांत और कारें तोड़ते हैं, मगर कर्मकांड....
सेंस ऑफ़ ह्यूमर के अलावा ये इनकी दूसरी महानता या पवित्रता है जो इस फ़िल्म के ज़रिए प्रकट भई है।
अंततः मीरा और काली तीसरी बार टकराते हैं।
ऐसे संयोग या तो फ़िल्मों में होते हैं या धार्मिक कथाओं में।
गैंगस्टर्स की दुनिया इतनी छोटी होती है क्या !?
लगता है ये अपनी सारी उम्र किसी एक ही गली में काट देते हैं।
और वहां घर-घर चलनेवाली सत्यनारायन की कथाओं में आए दिन अचानक आमने-सामने पड़ जाते हैं।
फ़िल्म में अब तक धर्मनिरपेक्षता दिखाई नहीं दी!? ऐसे कैसे चलेगा?
अंत में मुझे लगता है कि फ़िल्म के बहाने मैं किसी ऐसे तथाकथित लोकतांत्रिक देश का परिदृश्य देख रहा हूं जहां के नागरिकों के पास दो-तीन ही ऑप्शन होते हैं-काली, मीरा और किंग। तीनों ही गैंगस्टर हैं। हीरो भी इन्हीं में से चुनना है, विलेन भी और कॉमेडियन भी।
चुनना है चुनो वरना भाड़ में जाओ!
-संजय ग्रोवर
19-12-2015
(मन हुआ तो ‘रंग दे गेरुआ’ पर एक लेख अलग से, ‘नास्तिकTheAtheist’ में)