(ये प्रतिक्रियाएं/समीक्षाएं साहित्य या पत्रकारिता के किसी पारंपरिक ढांचे के अनुसार नहीं होंगीं। जिस फ़िल्म पर जितना और जैसा कहना ज़रुरी लगेगा, कह दिया जाएगा । (आप कुछ कहना चाहें तो आपका स्वागत है।)

Saturday 27 February 2016

अलीगढ़ : हाज़िर तन्हाई और ग़ायब ज़हर

इस फ़िल्म के बारे में आवश्यक जानकारियां आप इन दो लिंक्स् पर क्लिक करके देख सकते हैं -  
1, IMDb  

आदमी ने दो दुनिया बनाईं-एक दिखाने की, एक छिपाने की।
और तरह-तरह की परेशानियों में पड़ गया।
अब न वह जी पाता है न किसीको जीने देता है।
अब वह खिड़कियों में झांकता फिरता है, दीवारों से कान लगाए दूसरों की वे बातें जानना चाहता है जो उसे घर बैठे मालूम हो सकतीं हैं।
अपना काम छोड़कर वह दूसरों के रोशनदान में छिपा है, चूहे की तरह पड़ोसी के घर में बिल बनाए है।
उसे मालूम नहीं कि इसी बिल का दूसरा सिरा उसके अपने घर में खुलता है।

‘अलीगढ़‘ उसी आदमी की कहानी है।

न यह आदमी ठीक से प्रगतिशील है न सही मायने में कट्टरपंथी। यह वह आदमी है जिसके पास आत्मविश्वास नाम की कोई चीज़ नहीं है, जिसके पास अपनी कोई सोच नहीं है, जो दूसरों की बनाई पटरियों पर रेल की तरह भाग रहा है। इस रेल में कितने डिब्बे हों, कितनी इसकी रफ़्तार हो, किस-किस स्टेशन पर यह रुके ; सब कुछ दूसरे तय करते हैं। कोई पुरानी क़िताब, कोई लाशों से भी गए-बीते पुरखे, कोई तथाकथित महापुरुष, कोई शर्मनाक मुहावरे, कोई लोककथा, कोई दिग्भ्रमित करनेवाली कविता....। और यह समझता है कि मै अपनी मर्ज़ी से जीता हूं।
यह वह आदमी है जो अपनी ही जड़ों में कीड़ों की तरह लगा है और समाधान के लिए हवा सूंघ रहा है, आसमान को ताक रहा है।

प्रोफ़ेसर सिरस एक अलग क़िस्म का आदमी लगता है। है तो बिलकुल आदमी जैसा मगर आदमी जब आदमी को देखता है तो बीच में तरह-तरह की धारणाएं, महापुरुष, आयकन, मान्यताएं, परिभाषाएं, लेखक, चिंतक और विद्वान आ जाते हैं। नज़र धुंधला जाती है और साफ़-साफ़ कुछ दिखाई नहीं देता। धुंधली नज़र क़िस्म-क़िस्म की दुर्घटनाओं का कारण बन जाती है। प्रोफ़ेसर ठीक-ठाक आदमी है, मगर उनको ठीक नहीं लगता जो आदमी को अपनी तरह से, अपनी सुविधानुसार गढ़ना चाहते हैं। वे कमज़ोर लोग हैं मगर उनका अहंकार बहुत मजबूत है, उनके आस-पास उन्हीेंके जैसे लोग हैं, इस वजह से ये सब आपस में मिलकर ख़ुदको ताक़तवर समझने लगते हैं। इन्हीं की वजह से प्रोफ़ेसर अलग क़िस्म का आदमी लगता है वरना वह बिलकुल सामान्य आदमी है ; बल्कि कईयों से कुछ बेहतर ही लगता है।

प्रोफ़ेसर की तन्हाई नितांत मौलिक है। वह अपना वक़्त किसी तयशुदा ढंग से नहीं बिताता। उसके पास तन्हाई की बहुत बड़ी मात्रा है क्योंकि उसके सब्जेक्ट को पढ़नेवाले विद्यार्थी बहुत कम हैं और वह किसीके जैसा नहीं, बिलकुल अपने जैसा है। यह बिलकुल सामान्य बात है। दुनिया में सभी लोग अपने जैसे हो जाएंगे अगर किसीके जैसा बनने/बनाने की तानाशाही से उन्हें किसी तरह मुक्त रखा जाए। एक छोटी-सी संभावना यह भी है कि प्रोफ़ेसर एब्नॉर्मल हो, लेकिन ठीक से इसका पता भी तब ही लग सकता है जब सभी बच्चों को नॉर्मल ढंग से बड़ा होने दिया जाए, स्वतंत्रता से फलने-फूलने दिया जाए। फ़िलहाल तो भीड़ को नॉर्मल और व्यक्ति को एब्नॉर्मल मान लिया जाता है।

प्रोफ़ेसर भीड़ का हिस्सा नहीं लगता। उसे एक ऐसे व्यक्ति से प्रेम है (या कहिए कि शारीरिक आकर्षण है, ज़रुरत है) जिससे प्रेम करना भीड़ के लिए किसी भी तरह से आसान नहीं है। फ़िल्म के गिने-चुने स्त्री-पात्रों में से एक (वक़ील) एक जायज़-सा लगनेवाला सवाल उठाती है कि एक पढ़े-लिखे प्रोफ़ेसर का एक रिक्शेवाले से प्रेम कैसे संभव है ? लेकिन दुनिया के किसी भी तरह के प्रेम बारे में दूसरे कैसे तय कर सकते हैं कि प्रेम असली है या नक़ली है। यह तो प्रेम करनेवालों पर ही छोड़ना पड़ता है। 

जैसा कि होता है ताक़तवर-से लगनेवाले कमज़ोर लोग प्रोफ़ेसर की सामान्यता से घबरा जाते हैं। वे छिपकली की तरह उसपर नज़र रखते हैं और मौक़ा देखकर डायनासोर की तरह उसपर टूट पड़ते हैं। तन्हा प्रोफ़ेसर और बेबस नज़र आता है।

मैं सोचता हूं कि अगर प्रोफ़ेसर कोई गुंडा टाइप आदमी होता, कोई दबंग होता, कोई शातिर होता तो क्या यही लोग उसके लिए तालियां न बजा रहे होते ? यह मैं इसलिए भी कह रहा हूं कि मैंने अलीगढ़ का पड़ोस भी देखा है। वहां लोग पहलवानी करते थे, अखाड़े चलाते थे और ‘शौक़’ फ़रमाते थे। किसीकी हिम्मत नहीं होती थी कि आंख उठाकर उन्हें देखे। वे अपने ‘क़रतबों’ के चरचे राजा-महाराजाओं की वीरता की तरह करते थे और हम रास्ते से निकलते भी डरते थे। डरते थे क्योंकि हमें इनमें से किसी भी तरह का शौक़ नहीं था। न तो हमें यह प्रेम के रुप में चाहिए था न तानाशाही के ज़रिए हासिल करने की तमन्ना थी। ऐसी किसी संबंधलीला में न तो हमें पुरुष का रोल चाहिए था न स्त्री का।

प्रोफ़ेसर भी अगर दादा होता तो यह कहानी किसी ‘अजीब’ आदमी की कहानी होती या किसी गॉडफ़ादर की !? फिर शायद प्रोफ़ेसर उस दोमुंही दुनिया का ऊपरी हिस्सा होता। वही दुनिया जिसमें एक शानदार स्टूडियो में एक शानदार टेबल के पीछे एक शानदार आदमी बैठा है। वह कोई प्रेज़ेंटर हो सकता है, दुकानदार हो सकता है, प्रोफ़ेसर हो सकता है, खिलाड़ी हो सकता है, अभिनेता हो सकता है, एंकर हो सकता है, न्यूज़रीडर हो सकता है, उद्योगपति हो सकता है.....मगर जिसका सिर्फ़ ऊपर का हिस्सा आपको दिखाई देता है-नहाया-धोया, टाई-कोट पहना या लिपस्टिक-पाउडर लगा हिस्सा.....क्योंकि बाक़ी का हिस्सा शानदार टेबल के नीचे है जहां आपकी नज़र नहीं पहुंच सकती। क्योंकि जो ज़हर है वो हमेशा ही ग़ायब रहने के पूरे प्रबंध रखता है। निराकार बदमाश है, वह आसानी से पकड़ में नहीं आता, वह दूसरों के कंधों पर बंदूक रखकर ज़हरमार करता है, वह दूसरे के ज़हन में घुसकर छोटे-बड़े झगड़ो-दंगो का माहौल निर्मित करता है। 

लगातार नाक फुलानेवाले उनके ख़लचरित्र देखने के बाद मनोज बाजपेई को एक कभी सामान्य-शांत तो कभी ज़रा-सा विचलित, प्रोफ़ेसर की भूमिका में देखना सुखद है। उन्होंने मेहनत की है और वह रंग भी लाई है। पत्रकार दीपू की भूमिका को राजकुमार राव ने अच्छा निभाया है। वक़ील के रुप में आशीष विद्यार्थी और (महिला अभिनेत्री) भी यथार्थ के काफ़ी क़रीब लगे हैं। सेट-डिज़ाइन/लोकेशन, वस्त्र-डिज़ाइन, संवाद, निर्देशन....सभी यथार्थ के काफ़ी क़रीब हैं।

जिन लोगों में इंसान को समझने की और इंसानियत को बचाने की चाह वाक़ई मौजूद है, उन्हें इस फ़िल्म को ज़रुर देखना चाहिए।

-संजय ग्रोवर

27-02-2016



Friday 12 February 2016

हिंदी फिल्मों की गोलमोल नास्तिकता और उसपर टीवी की गोलमोल बहसें


4.17 मिनट का यह वीडियो है। फ़ेसबुक पर कुछ लोगों ने इस सलाह के साथ लगाया कि इसे देखकर आपकी आंखें खुल जाएंगी। मैंने, देखा तो मुझे इसमें कोई ख़ास या नई बात नज़र नहीं आई। मैंने पूरा वीडियो ढूंढने की कोशिश की, क़रीब आधा घंटा लगाया, नहीं मिला। एक अन्य वीडियो मिला जो तकरीबन दस मिनट का था।

बहरहाल, कहीं पूरा वीडियो मिल गया और उसमें कुछ अलग निष्कर्ष निकलता दिखाई दिया तो हम दोबारा बात कर लेंगे। अभी इसीपर करते हैं। 

यहां यह समझना मुश्क़िल है कि जावेद अख़्तर क्यों यह सफ़ाई दे रहे हैं कि ‘मैंने तो हमेशा कहा आयम एन अथीस्ट.....’, मगर यह स्पष्ट है कि बात पीके की चल रही है और फ़िल्म के निर्देशक राजू हिरानी भी वहीं कुर्सी डाले बैठे हैं। सोचने की बात है कि इससे पहले कब किसीको यह सफ़ाई देनी पड़ती थी कि वह नास्तिक है। यह माहौल नास्तिकता के खि़लाफ़ माना जाए कि उसके पक्ष में माना जाए !?

यहां जावेद अख़्तर सहिष्णुता की बात करते हुए 1975 में बनी अपनी ‘शोले’ के उस दृश्य का हवाला दे रहे हैं कि किस तरह नायक एक मंदिर में भगवान की मूर्ति के पीछे छुपकर भगवान बनकर बोल रहा है। वे कहते हैं कि शायद आज मैं इस दृश्य को न लिखता। अब सोचने की बात यह है कि क्या ‘शोले’ अंधविश्वास के खि़लाफ़ और नास्तिकता के पक्ष में बनी कोई फ़िल्म थी !? क़तई नहीं। यह फ़िल्म बदले पर आधारित, नाटकीय दृश्यों से भरी एक साधारण फ़िल्म थी। इसे भी छोड़िए। क्या नायक इस दृश्य में अंधविश्वास हटाने की कोशिश कर रहा है ? क्या वह भगवान का न होना साबित कर रहा है ? बिलकुल भी नहीं। वह तो उसके होने के अंधविश्वास का लाभ उठा रहा है। यह लाभ उसे मिल रहा है यह इसीसे पता चलता है कि नायिका तुरंत इस पर विश्वास कर लेती है। यह दृश्य अंधविश्वास और भगवान के होने के पक्ष में है, उसके खि़लाफ़ नहीं।  इसपर कोई भक्त क्यों ऐतराज़ करेगा ? वीडियो के इस टुकड़े से तो यही समझ में आता है कि वे ग़लत उदाहरण दे रहे हैं। वे और भी फ़िल्मों का उदाहरण देते हैं जिनमें से किसीमें कोई पात्र भगवान की मूर्ति उठाकर फ़ेंक देता है। ऐसी तो बहुत फ़िल्में बनी हैं। अमिताभ बच्चन की ‘नास्तिक’, 1954 में बनी ‘नास्तिक’, सुनील दत्त अभिनीत ‘रेलवे प्लेटफॉर्म’ ऐसी ही, या ऐसे ही कुछ दृश्यों वाली फ़िल्में हैं। मुद्दे की असली बात यह है कि ऐसी किसी फ़िल्म में भगवान के अस्तित्व से इंकार नहीं किया गया। 


जावेद अख़्तर किस तरह के नास्तिक हैं यह तो वही बताएंगे, लेकिन इस तरह की जितनी फ़िल्में बनी हैं, वे भगवान के होने की पुष्टि करतीं हैं, वे किसीकी आंखें नहीं खोलती बल्कि जागते हुए लोगों को भी सुलाने की कोशिश करती लगतीं हैं। आंखें क्या वे तो खुले हुए दिमाग़ों को भी बंद कर देतीं हैं। जावेद यहां कह रहे हैं कि वे भगवान में विश्वास नहीं करते जबकि उन्हींके बराबर में बैठे राजू हिरानी कह रहे हैं कि फ़िल्म दो तरह के भगवानों के बारे में बताती है-एक, जिसे हमने बनाया है ; दूसरा, जिसने हमें बनाया है। और जैसाकि फ़िल्म में भी दिखाया गया है कि दूसरा वाला भगवान असली है। अब जावेद अख़्तर का इसपर क्या मानना है यह तो, अगर उन्होंने इसपर कुछ कहा है तो, बाक़ी वीडियो से ही पता लग सकता है। मेरी समझ में, जावेद अख़्तर की नास्तिकता(अगर वे नास्तिकता का मतलब भगवान के वजूद से इंकार करना मानते हैं) और राजू हिरानी के अंधविश्वास-विरोध का अंतर तो यहीं साफ़ हो जाता है। 


पहले तो इस देश के ज़िम्मेदार प्रगतिशीलों और अंधविश्वास-विरोधियों को यह स्पष्ट करना चाहिए कि उनके नास्तिकता के अर्थ क्या हैं-भगवान को न मानना या मूर्ति और कर्मकांड को न मानना। अब जिन तालिबान की मूढ़ता का हवाला देकर जावेद प्रगतिशीलता का मतलब समझाने की कोशिश कर रहे हैं, मूर्तिपूजा तो वे भी नहीं करते। इससे उनको हासिल क्या हुआ ? असली समस्या सिर्फ़ मूर्तिपूजा नहीं है, असली समस्या  हैं किसी निराकार/ग़ायब/भगवान/ख़ुदा/शक्ति/गॉड के होने का समर्थन या फिर इसपर चुप्पी या गोलमोल बातें।



12-02-2016

असली समस्याएं हैं इस तरह की मान्यताएं कि कोई अदृश्य शक्ति या शक्तियां इस दुनिया को चलातीं हैं जो कि इंसान से कई गुना ज़्यादा ताक़तवर हैं, इंसान की उस/उनके सामने कोई औक़ात नहीं है, वह बेबस, मजबूर और कमज़ोर है, वह उनके हाथों की कठपुतली है, उसके बस का कुछ नहीं है जब तक कि वह उन तथाकथित शक्तिओं के आगे सिर न झुकाए, उनका अहसान न माने, उन अहसानों का बदला न चुकाए, उन तथाकथित शक्तिओं के होने को बेशर्त स्वीकार न कर ले। मूर्तियां, कर्मकांड, संस्कार, कलंडर, भजन, फ़िल्में, लेख आदि तो उन तथाकथित शक्तिओं के विज्ञापन या रीमाइंडर्स की तरह हैं। ‘भगवान सर्वशक्तिमान है’, ‘वह सर्वत्रविद्यमान है’, ‘उसकी लाठी में आवाज़ नहीं होती’, ‘उसके आगे किसीका बस नहीं चलता’, ‘उसकी मर्ज़ी के बिना कुछ नहीं होता’, ‘उसकी मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता’, ‘जाको राखे साईयां’,.....जैसे प्रचलित और आम लोगों में स्वीकृत कहावतें और मुहावरे ही बताते हैं कि समस्या मूर्ति तक सीमित नहीं है। दूरदराज़ गांवों में ओझाओं द्वारा औरतों को उल्टा लटकाकर, आग में मिर्ची झोंककर उनका तथाकथित ‘भूत’ उतारना हो या ज्योतिषी द्वारा किसीका हाथ देखकर भविष्य बताते हुए पैसा झाड़ लेना हो, इन सबकी जड़ में मूर्ति नहीं बल्कि कुछ निराकार/ग़ायब/अदृश्य शक्तिओं पर आदमी का विश्वास है। उन तथाकथित निराकार शक्तियों पर स्पष्ट बातचीत के बिना हम काला जादू, मिडिलमैन और बाबावाद का कुछ कर पायेंगे, यह एक बचकाना ख़्याल ही लगता है। कट्टरपंथिओं को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आप ऐसी या वैसी, कैसी शक्तियों को मानते हैं ; उनके लिए इतना काफ़ी है कि आप किसी अमानवीय यानि मानवता से इतर/ऊपर किसी रहस्यमय शक्ति में विश्वास करते हैं। तालिबान भी किसी मूर्ति की वजह से नहीं बल्कि किसी निराकार शक्ति में विश्वास की वजह से ही सब कुछ कर रहे हैं।

जावेद 1975 और आज के फ़र्क़ की बात कर रहे हैं। मेरे पास यह नापने का कोई तरीक़ा नहीं है कि आजकल असहिष्णुता की मात्रा क्या है। लेकिन मैं कह सकता हूं कि असहिष्णुता कि जड़ सिर्फ़ वहां नहीं है, जहां तयशुदा नतीजों के साथ ढूंढी जा रही है। कर्मकांडों और अंधविश्वासों के स्पष्ट विरोधी कहे जानेवाले कबीर की लाश में से फूल 1975 से पहले ही निकाले जा चुके थे। बिना शिक्षा दिए दक्षिणा में ‘शिष्य’ एकलव्य का अंगूठा काट लेनेवाले ‘गुरु’ द्रोणाचार्य के नाम पर पुरस्कार 1975 से पहले से चल रहे हैं। बाबरी मस्ज़िद कांड और दुग्धपान कांड के वक़्त सहिष्णुता थी या असहिष्णुता, कैसे पता लगाया जाए ? ‘जय संतोषी मां’ भी 1974-75 के आसपास ही सुपरहिट हो चुकी थी।

हालांकि उस वक़्त की स्टंट और कमर्शियल फ़िल्मों को हर समझदार दर्शक एक जैसी गंभीरता से लेता होगा, लगता तो नहीं है। फिर भी बात आई है तो ठीक से कर ही लेनी चाहिए कि मूर्ति के साथ भक्तों को इस तरह बातचीत करते शायद ही किसीने देखा होगा जैसा ‘शोले’ व अन्य फ़िल्मों में होता है। वे लोग भजन वग़ैरह गाते हैं, प्रसाद इत्यादि चढ़ाते हैं पर तेज़ आवाज़ में इस तरह बातचीत....! कुछ फ़िल्मों में तथाकथित नास्तिक नायक मंदिर में जाकर भगवान की मूर्ति से लड़ता है कि ‘मैं तुझे नहीं मानता, नहीं मानूंगा.....’ आदि-आदि। नास्तिकता का यह कांसेप्ट सिरे से ग़लत है। जो भगवान के अस्तित्व में ही विश्वास नहीं करता वह उससे लड़ने क्यों जाएगा !? यह तो फ़िल्मी नास्तिकता हुई। यहां यह ज़िक्र करना ज़रुरी है कि मैं 4-5 साल से यूट्यूब पर खोज रहा हूं, मुझे असली नास्तिकता पर आज तक न तो एक भी हिंदी गीत मिला है न एक भी हिंदी फ़िल्म। मेरी खोज में कमी हो सकती है पर यह अभी जारी है।  

यह अनुमान लगाना भी अजीब लगता है कि शोले का वह दृश्य आज स्वीकृत न हो पाता। ‘पीके’ 2015 की रिलीज़ है। 2012 में ‘ओह माय गॉड’ रिलीज़ हुई थी जिसमें नास्तिक शब्द का ख़ुला इस्तेमाल है और परेश रावल मूर्तियों और बाबाओं के साथ कई बार, कई तरह की छेड़खानियां करते हैं।। ‘पीकू’ जैसी फ़िल्म भी आजकल में ही रिलीज़ हुई है जिसमें एक बाप अपनी बेटी के सामने उसके सैक्स-संबंधों की चर्चा करता है। ‘तेरे बिन लादेन’ नाम की फ़िल्म का अगला भाग तैयार है। जैसे बोल्ड विषयों पर और बोल्ड संवादों के साथ आजकल फ़िल्में बन रहीं हैं, 1975 में सोचना भी मुश्क़िल रहा होगा। और मैं यह क़तई नहीं कह रहा कि इसका श्रेय किसी सरकार या विचारधारा को जाता है। मेरी सीमित समझ के अनुसार इसका श्रेय टैक्नोलॉजी को जाता है जिसने इंटरनेट, वाई-फ़ाई, स्मार्टफ़ोन, लैपटॉप जैसे माध्यम और उपकरण देकर इंसान को इंसान के क़रीब आने, नये विचार बांटने और एक-दूसरे की संस्कृतियों को जानने में मदद की है, उसकी सोच-समझ के दायरे को बड़ा कर दिया है।

जावेद यहां यह भी कह रहे हैं कि आपको तालिबान जैसा क्यों बनना चाहिए, क्यों नहीं आप उन्हें अपने जैसा बनाएं। लेकिन भारत की तथाकथित उदारवादी या प्रगतिशील विचारधाराओं से जुड़ी संस्थाएं/पार्टियां क्यों नहीं आर एस एस/मुस्लिम लीग को अपने जैसा बना पाईं ? क्या इसलिए कि उनमें बस उतना ही अंतर है जितना कि साकार और निराकार या ग़ायब और हाज़िर में होता है ?


यानि कि न के बराबर !  

17-02-2016

-संजय ग्रोवर

(इस संदर्भ में ये लेख भी प्रासंगिक हैं- पहलादूसरा)

(‘ओह माई गॉड’ की समीक्षा और नास्तिकता पर बनी कुछ अन्य हिंदी फ़िल्मों पर बात जल्दी ही)