कल कृश नाम की फ़िल्म की कुछ 'झलकैय्यां' देखने को मिल गईं जिसके बारे में कहा जा रहा है कि बड़े ग़ज़ब की फ़िल्म है और बड़ा अच्छा बिज़नेस कर रही है। यह ज़रुर संभव है कि अच्छा बिज़नेस कर रही हो, (अच्छा बिज़नेस कैसे होता है, इसे लेकर अब मेरे मन में तो कोई संदेह बाक़ी भी नहीं रह गया) मगर अच्छी फ़िल्म कैसे है, समझ में नहीं आया!? तकनीक़ी दृष्टि से देखें तो कहीं भी यह ‘सुपरमैन’ या ‘बैटमैन’ की फ़िल्मों से आगे नहीं ले जाती। आजकल इंटरनेट पर विदेशी साइट्स् पर कई फ़िल्में उपलब्ध हैं, आप देखकर स्वयं तुलना कर सकते हैं। नैतिक और सामाजिक दृष्टि से देखें तो यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण को हतोत्साहित करने के लिए ही विज्ञान के दुरुपयोग की भारतीय परंपरा का ही विस्तार लगती है। जाने-अनजाने में फ़िल्म बताती है कि भगवान किस दृष्टि से और कैसे लोगों ने गढ़े होंगे। शक्तियां, नायक और ख़लनायक, दोनों के पास हैं, मगर जैसा कि इमेज गढ़ने का खेल है, स्थापित यह किया जाता है कि नायक इन शक्तियों का इस्तेमाल दूसरों के भले के लिए करता है जबकि खलनायक स्वार्थ के लिए। पहली तो बात यह कि इस तरह की अमानवीय शक्तियों की बात करना जो हमेशा कहानियों-क़िस्सों के अलावा कभी संभव नहीं हो पाई, क्या अंधविश्वासों की सबसे निचली पायदान पर खड़े समाजों को पूरी तबाही की तरफ़ अग्रसर करना नहीं है ?सबसे हास्यास्पद तो यह है कि फ़िल्म में ‘क्षण-भर में रुप बदल लेने’ के पुराने अंधविश्वास को पुख़्ता करने के लिए सूपर्णखां जैसे काल्पनिक पात्र के नाम का इस्तेमाल किया गया है। कितनी अजीब बात है कि जब कृश किसीकी सहायता (!) करने के लिए पलक झपकते मास्क और लबादा पहनकर सैकड़ों मील दूर प्रकट हो सकता है और उसके इस ‘चमत्कार’ को जस्टीफ़ाई करने के लिए आपको रावण या इंद्र महाराज का उदाहरण देने की ज़रुरत नहीं पड़ती तो सूपर्णखां काहे घसीट लाए भैय्या !?
इस फ़िल्म से एक बार फ़िर यह साबित होता है कि अंग्रेज़ी सीख लेने, टाई और स्कर्ट पहन लेने भर से आदमी प्रगतिशील नहीं हो जाता। पैसे हों तो ख़ाप का मुखिया भी नए से नया वैज्ञानिक उपकरण ख़रीद सकता है। बात तो तब है जब वह अपने गांव में आविष्कार का माहौल पैदा कर सके। आजकल, रोज़ाना, हम देख ही रहे हैं कि टाई कोट पहननेवालों एंकरों और दाढ़ीवाले बाबाओं में कपड़ों और भाषा के अलावा कोई और फ़र्क ढूंढना मुश्क़िल होता जा रहा है। बल्कि कई दाढ़ीवाले बाबा तो बीच-बीच में दो-चार सेंटेंस अंग्रेज़ी के भी मार देते हैं। किसी भी मूल्य के आप कोई चार प्रतीक तय करके बैठ जाएंगे तो यही परिणाम होगा। अवसवरवादी रुप बदलने में देर नहीं लगाते। पल-भर में तो नहीं लेकिन दो-चार दिन काफ़ी होते हैं।
पल-भर में रुप बदल लेने के अंधविश्वासों को पुख़्ता करने वाली इन फ़िल्मों के निर्माता-निर्देशक-अभिनेता प्रोमो के दौरान अपनी और फ़िल्म की अपरोक्ष तारीफ़ में जब यह कहते हैं कि यार मेकअप के दौरान चार-चार घंटे एक ही पोज़ में बैठना पड़ता था, तो और हंसी आती है। (माना कि इन सब कामों में भी मेहनत कम नहीं है फ़िर भी) पहली बात तो यह है कि मेकअप हो या सिक्स पैक एब्स हों या वज़न घटाना हो, कोई भी काम अभिनय की जगह नहीं ले सकता। दूसरे, मेकअप की ज़रुरत क्या थी, मंत्र पढ़ते और रुप बदल लेते। जिस अंधविश्वास का प्रचार फ़िल्म के ज़रिए कर रहे हो, उसे ख़ुद पर भी तो लागू करके दिखाते ज़रा!
अंधविश्वासों के कचरे में गले-गले तक फंसे, कराहते देश में अरबों रुपए लगाकर, विज्ञान का इस्तेमाल विज्ञान के ही खि़लाफ़ करनेवाली ऐसी फ़िल्मों की व्याख्या एक ही शब्द में करनी हो तो कौन-सा शब्द इस्तेमाल किया जाना चाहिए ?
-संजय ग्रोवर
10-11-2013
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