(ये प्रतिक्रियाएं/समीक्षाएं साहित्य या पत्रकारिता के किसी पारंपरिक ढांचे के अनुसार नहीं होंगीं। जिस फ़िल्म पर जितना और जैसा कहना ज़रुरी लगेगा, कह दिया जाएगा । (आप कुछ कहना चाहें तो आपका स्वागत है।)

Saturday 19 December 2015

दिलवाले : तीन गैंगस्टर विकल्पों वाला कोई देश

फ़िल्म-समीक्षा
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हीरो काली है, हीरोइन मीरा है, और एक गाना है-‘रंग दे तू मोहे गेरुआ.....’

फ़िल्म धार्मिक लगती है। जहां धर्म है वहां कहीं न कहीं आस-पास धर्मनिरपेक्षता भी होनी चाहिए। दोनों सगे भाई-बहिन हैं।

देखते हैं, इंतज़ार करते हैं। तब तक-

शुरुआत में अजीब लगता है कि एक लड़की इतनी सहजता से एक गैंगस्टर के साथ प्रेम कैसे कर सकती है ?

यूं यह तो कई बार देखा है कि लड़के-लड़कियां अकसर सफ़ल बेईमानों के साथ ख़ुदको ज़्यादा सहज और सेफ़ महसूस करते हैं।

लीजिए, पता चलता है कि लड़की भी गैंगस्टर है।

न सिर्फ़ गैंगस्टर हैं बल्कि दोनो ही ख़ानदानी गैंगस्टर हैं।


गैंगस्टरी से लेकर शायरी तक में ख़ानदानियों की बात ही कुछ और है।

गैंगस्टर्स का सेंस ऑफ़ ह्यूमर काफ़ी अच्छा दिखाया गया है। हो सकता है। नॉन-गैंगस्टर्स ने इसका ठेका थोड़े ले रखा है।

इंटरवल से कुछ पहले मीरा, काली को मारनेवाली है कि अचानक छोड़ देती है। पता चला कि आज उसका बर्थडे है। ये गैंगस्टर्स भी कर्मकांडों के कितने पक्के होते हैं। दुनिया-भर के नियम-क़ानून तोड़ते हैं, हड्डियां, दांत और कारें तोड़ते हैं, मगर कर्मकांड....

सेंस ऑफ़ ह्यूमर के अलावा ये इनकी दूसरी महानता या पवित्रता है जो इस फ़िल्म के ज़रिए प्रकट भई है।

अंततः मीरा और काली तीसरी बार टकराते हैं। 

ऐसे संयोग या तो फ़िल्मों में होते हैं या धार्मिक कथाओं में।

गैंगस्टर्स की दुनिया इतनी छोटी होती है क्या !?

लगता है ये अपनी सारी उम्र किसी एक ही गली में काट देते हैं। 

और वहां घर-घर चलनेवाली सत्यनारायन की कथाओं में आए दिन अचानक आमने-सामने पड़ जाते हैं।

फ़िल्म में अब तक धर्मनिरपेक्षता दिखाई नहीं दी!? ऐसे कैसे चलेगा?

अंत में मुझे लगता है कि फ़िल्म के बहाने मैं किसी ऐसे तथाकथित लोकतांत्रिक देश का परिदृश्य देख रहा हूं जहां के नागरिकों के पास दो-तीन ही ऑप्शन होते हैं-काली, मीरा और किंग। तीनों ही गैंगस्टर हैं। हीरो भी इन्हीं में से चुनना है, विलेन भी और कॉमेडियन भी।

चुनना है चुनो वरना भाड़ में जाओ!

-संजय ग्रोवर
19-12-2015

(मन हुआ तो ‘रंग दे गेरुआ’ पर एक लेख अलग से, ‘नास्तिकTheAtheist’ में)


Thursday 19 November 2015

इत्तेफ़ाक़ : पागलपन, दुनियादारी और सस्पेंस......

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दिलीप राय(राजेश खन्ना) एक पेंटर है। वह एक, जैसा कि क़िताबों और फ़िल्मों में अकसर कलाकारों को दिखाया जाता रहा है, उलझा-उलझा-सा, खोया-खोया-सा आदमी है, जल्दी उत्तेजित और हिंसक हो जाता है। शादीशुदा है मगर दुनियादारी से ज़्यादा अपने काम में लगा रहता है सो पत्नी परेशान रहती है। उनके बीच एक हिंसक झड़प  होती है और उसके बाद पत्नी का ख़ून हो जाता है। आरोप दिलीप राय पर है। मुक़दमे के दौरान भी वह अपनेआप पर क़ाबू नहीं रख पाता और कुछ ऐसी हरक़तें करने लगता है जिन्हें दुनियादारी, समझदारी और संभवतः मनोचिकित्सा की ज़ुबान में भी ‘पागलों जैसी’ हरक़तें कहा जाता है।

जज का कहना है कि पहले उसे पागलख़ाने में रखा जाए।

वह पागलख़ाने से भाग निकलता है और एक घर में जा छुपता है जहां रेखा(नंदा) अकेली है। उसका पति जगमोहन कलकत्ता गया है।

एक पागल अपराधी() और एक अकेली शादीशुदा गृहणी के बीच कुछ दिलचस्प बात-चीत और रोचक प्रसंग देखने को मिलते हैं। चूंकि संदर्भ पागलपन का भी है इसलिए इन दृश्यों को नाटकीय भी नहीं कहा जा सकता।

संभवतः यह राजेश खन्ना की शुरुआती फ़िल्मों में से एक है जब राजेश खन्ना का अपना कोई स्टाइल या मैनरिज़्म विकसित नहीं हुआ था (जिसकी नक़ल/मिमिक्री, आर्टिस्ट आसानी से कर पाते हैं और दर्शक भी जल्दी पहचान लेते हैं), शायद इसीलिए वे अपने पात्र में रम पाए हैं और बतौर (स्टार नहीं) अभिनेता बेहतर काम कर पाए हैं जो मुझे उनकी बाद की फ़िल्मों में कम दिखाई देता है।

1969 में बनी इस फ़िल्म में पागलपन को लेकर कोई बहुत गहरा और गंभीर विश्लेषण तो नहीं है मगर हॉरर और दूसरी थ्रिलर फ़िल्मों की तरह अतिरंजना या अतिश्योक्ति भी नहीं है। फ़िल्म में पात्रों की संख्या ज़्यादा नहीं है पर सस्पेंस लगभग अंत तक क़ायम रहता है।

फ़िल्म में इफ्तेख़ार और जगदीश राज की मशहूर पुलिसिया जोड़ी भी है जिसका रोल उस वक़्त की भारतीय टैस्ट क्रिकेट की ओपनर जोड़ियों की तरह आना और जाना ही होता था।

दर्शक(यानि मुझको) को ख़ुदसे जोड़े रखने में फ़िल्म अंत तक सफ़ल है।

फ़िल्म से एक ख़ूबसूरत डायलॉग-

डर दुनिया की सबसे ख़ौफ़नाक़ चीज़ है.....दुनिया में इतनी बुराई नज़र आती है......उसका सबब सिर्फ़ यह है कि हम एक-दूसरे से डरते हैं.....अगर हम एक-दूसरे से मोहब्बत करने लगें तो दुनिया बहुत ख़ूबसूरत हो जाए...

संवाद अख़्तर-उल-ईमान ने लिखें हैं।

वैसे फ़िल्म में दो-चार बार भगवान का भी ज़िक्र है। वही भगवान जिससे ज़्यादातर लोग डर के मारे संबंध रखते हैं।



-संजय ग्रोवर
19-11-2015


Monday 9 November 2015

प्रेम रतन धन पायो : वही ढाक के तीन पात !

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फ़िल्म किस दिन रिलीज़ होगी, हिट होगी या फ़्लॉप होगी..... ये सब आंकड़ेबाज़ों के लिए महत्वपूर्ण मसले हैं। अपने लिए अहम मुद्दा यह जानना है कि फ़िल्मकार कहना क्या चाहता है, उसकी नीयत क्या है, उसका कहने का ढंग क्या है.....। या फिर पैसे, प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा के लिए उसे ऐसा कुछ भी कहने और दिखाने से परहेज़ नहीं है जो उसे लगता है कि फ़िलहाल दर्शक को पसंद है और इसका भरपूर फ़ायदा वह उठा सकेगा। या वह किसी ऐसे समूह या मानसिकता का हिस्सा है जो दर्शकों/को अपने मनपसंद तरीक़े से गढ़ती/ढालती आई है और आगे भी यही करते रहना चाहती है !?

‘प्रेम रतन धन पायो’ के कुछ नमूना-गीत (ट्रेलर/सैम्पल सीन) देखने के बाद यही लगता है कि यह फ़िल्म ‘हम आपके हैं कौन’, ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’, ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’, ‘सास भी कभी बहू थी’.....जैसे फ़िल्मों/सीरियलों की ही अगली कड़ी है। इसमें कुछ राजघरानों, ख़ानदानों, गानों और उनसे पैदा चकाचौंध/भव्यता का गुणगान, सादगी और सभ्यता के हिस्सों की तरह किया जाएगा। हमारे दर्शक अब तक ऐसी बेमेल खिचड़ियों जिनमें पूरब और पश्चिम, परंपरा और प्रगतिशीलता का अतार्किक या कहें कि सीज़ोफ्रीनिक सा मेल-जोल होता है, को बड़ी दिलचस्पी बल्कि श्रद्धा से देखते आए हैं। इस तरह की कहानियों जिन में स्त्री पिता से विद्रोह करके घर से तो भाग जाती है या भागना चाहती है मगर शादी से पहले ही छलनी में से करवाचौथ का चांद भी छानना शरु कर देती है, का दर्शकों पर कैसा असर होता होगा ? वह मर्दों से नफ़रत भी करती है और मर्द के बिना रह भी नहीं सकती। वह तलाक़ भी लेती है और अगली बार फिर किसी दुनियादार और सफ़ल मर्द की तलाश में जुट जाती है। 

अगर कोई एकता कपूर या बड़जात्या इस तरह की कृतियां बनाते हैं तो इससे उनकी ज़िंदगी पर क्या असर पड़ता है ? आप देख सकते हैं कि एकता कपूर कैसे भी कपड़े पहन सकतीं हैं, कुछ भी खा पी सकतीं हैं, उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। लेकिन ‘तुलसी-फुलसी’ को आदर्श की तरह देखने और उनसे प्रेरणा ले लेनेवाली महिलाओं की ज़िंदगी एकता जैसी नहीं हो सकती। उनके लिए सभ्यताएं और संस्कृतियां नई-नई बाधाएं पैदा कर देतीं हैं। सलमान ख़ान किसी कहानी में तथाकथित राम जैसी मर्यादा दिखा सकते हैं, साथ में कथित कृष्ण जैसी छोटी-मोटी शरारतें भी कर सकते हैं लेकिन उनकी असली ज़िंदगी की मर्यादा वैसी नहीं होती, संपन्न कलाकार होने के नाते समाज में उन्हें तरह-तरह की छूटें हासिल होतीं हैं। वह समाज समानतावादी नहीं हो सकता जिसमें प्रेरणा और प्रेरित, आयकन और फ़ैन/भक्त के लिए अलग-अलग मानदंड हों।

मुझे नहीं मालूम इस फ़िल्म में क्या दिखाया गया होगा मगर एक समाज जो ख़ुद पिछले सैकड़ों सालों से चौबीस घंटे हलवा-पूड़ी, व्रत-त्यौहार, प्रतीक-कर्मकांड, पारंपरिक और आधुनिक अंधविश्वास आदि में व्यस्त है मगर उसीमें से कई लोग पिछले एक-डेढ साल से एक-दो नेताओं पर कट्टरपंथ का सारा इल्ज़ाम डालकर ख़ुदको प्रगतिशील माने ले रहे हैं, उस समाज का ऐसी कृतियों के साथ व्यवहार और इन कृतियों पर उसका विश्लेषण उसकी असलियत को छुपा नहीं पाता। 

फ़िल्म की समीक्षा फ़िल्म आने के बाद करेंगे।

मेरे लिए यह ख़ुशी की बात होगी अगर फ़िल्म में इससे अलग कुछ दिखाया गया हो।


09-11-2015

इधर बिहार चुनाव का नतीजा घोषित होता है उधर एन डी टी वी पर विज्ञापन दिखाई पड़ता है कि ‘मैगी वापस आ रहा है’.........

तक़नीक कितनी तेज़ हो गई है, लगता है विज्ञापन भी बने-बनाए आने लगे हैं।


इसी दीवाली पर रिलीज़ हुई फ़िल्म में गाना चल रहा है-


‘कुछ गुंजियां-वुंजियां (जैसा गाया गया है वैसा ही लिख दिया है) लेतेे चलो....


एक ही बात है भैया, गुंजियां-वुंजियां और मैगी-शैगी दोनों में मैदे का बड़ा योगदान है। 

फ़िल्म में हल्दीराम का बाक़ायदा ज़िक्र आता है। दीवाली का भी।

अयोध्या का भी ज़िक्र है, बड़ा भाई शरीफ़ और छोटा बदमाश है-वही राजेश खन्ना और प्रेम चोपड़ा का ज़माना ! यह चक्कर क्या है ? हमेशा बड़ा शरीफ़ और छोटा बदमाश क्यों ?

तो फिर प्रेम नाम रखने की क्या ज़रुरत आ पड़ी !? नाम भी वही रख लेने थे।

हमअक़्ल(और कमअक़्ल) तो बहुत देखे पर हमशक़्ल बस फ़िल्मों में ही दिखाई पड़ते हैं, यहां भी हैं। जैसा कि हमारी पुरानी फ़िल्मों में होता था, दोनों में फ़र्क करना मुश्क़िल, अगर एक को छोटी-सी मूंछ से अंडरलाइन न किया गया हो।

कुछ नया भी है, हीरो की दो सौतेली बहिनें हैं जिन्हें बाप की संपत्ति में अधिकार देने की बात प्रतीकात्मक ढंग से उठाई गई है जिसे बाद में तिलक और भैयादूज-वूज में निपटा दिया गया है। लगता है ‘प्रतीकात्मकता’ का आविष्कार ‘महापुरुषों’ ने इसी हेतु किया था।

सवाल यह है कि इस ‘नये’ को पुरानी कहानी में फ़िट करने की कोशिश क्यों की गई है !? 

क्या ‘सूरज बड़जात्या एंड कंपनी’ यह कहना चाहते हैं कि तथाकथित राम अब सुधरकर प्रेम हो गए हैं और अब उनके यहां बहिनें न सिर्फ़ पैदा हो सकतीं हैं बल्कि संपत्ति के बारे में भी सोच सकतीं हैं ?

तो इसके लिए कोई नई कहानी क्यों नहीं लिखी जा सकती थी !?
संभवतः यही वह ‘पुराना’ है जो ‘नया’ दिखाने की मजबूरी पैदा करता है। इसके दो कारण समझ में आते हैं-

1. कि हमारे यहां तो सब कुछ पहले-से ही मौजूद था-प्रगतिशीलता भी, विज्ञान भी, स्त्री-स्वातंत्र्य भी, आम का अचार भी, कत्थक भी, सालसा भी, पिपरमेंट भी और चॉकलेट भी.....

2. स्त्री-स्वातंत्र्य से लेकर नास्तिकता तक, हर बदलाव को धर्म के दायरे में क़ैद कर लो, बाद में तो निपट ही लेंगे। नहीं निपट पाए तो ‘श्रेष्ठता’ और ईगो इसीमें बची रहेगी कि ‘नया कुछ नहीं है, हमारे यहां सब पहले ही हो चुका है, ना मानों तो वह वाली क़िताब पढ़ लो और यह वाली फ़िल्म देख लो....

धर्म के दायरे में रहेगा तो सब पंडित जी के हाथ में रहेगा, वरना क्या पता कब क्या खिसक जाए....

अब क्या इसपर भी बात की जाए कि किसने कैसा अभिनय किया ? जहां सारी ज़िंदगी ही अभिनय जैसी हो रखी हो....। अच्छे काम के नाम पर अभिनय/कर्मकांड होता हो और बुरे काम वास्तव में किए जाते हों......

अभिनेता तो हम सभी बड़े अच्छे हैं, कोई किसीसे कम नहीं है। 

पर ज़िंदगी फ़िल्म नहीं है।

-संजय ग्रोवर
14-11-2015

(इस समीक्षा का हल्दीराम से कोई संबंध नहीं है, ये मेरे अपने विचार हैं)









Sunday 1 November 2015

‘मैं और चार्ल्स’ और हम

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वह महीन फ्रेम का चश्मा लगाकर ज़हीन-सा दिखता है। आप उसकी अदाएं देखिए, जेस्चर्स या बॉडी लैंग्वेज देखिए, धीमी आवाज़ में बात करने का धैर्य देखिए, कई भाषाओं का ज्ञाता होना देखिए, स्त्रियों में लोकप्रियता देखिए, उसकी मुस्कान में गंभीरता और गहराई देखिए....

वह कुछ भी हो सकता था। कोई स्टाइलिश फ़िल्मस्टार, कोई ऊंचा उद्योगपति, दक्ष ब्यूरोक्रेट, बोल्ड पत्रकार, विद्रोही साहित्यकार, पक्का प्रॉपर्टी डीलर, अनुभवी अनुवादक.......कुछ भी...

फिर वह ठग ही क्यों है ?

उसका और उसके जैसे दूसरों का अंतर कुछ-कुछ बिन लादेन और जॉर्ज बुश के अंतर जैसा लगता है। दोनों धार्मिक रुप से कट्टर हैं मगर एक ही वक़्त में एक किन्हीं दूर-दराज़ पहाड़ियों में छुपता घूमता है तो दूसरा एक सम्मानित राजनीतिज्ञ की तरह रिटायर होता है।

चारों तरफ़ लोग हैं जो थोड़े कम या ज़्यादा चार्ल्स हैं। कुछ दुकानदार हैं जो एक ही चीज़ के किसीसे पांच तो किसीसे पचास तो किसीसे पांच सौ ले लेते हैं। प्रॉपर्टी डीलर हैं जो ऐडवांस के वक्त किसी और आदमी से मिलवाते हैं और रजिस्ट्री के वक्त किसी दूसरे को खड़ा कर देते हैं (हक़ीक़त में यक़ीन न हो तो ‘खोसला का घोंसला’ देखकर सीखें)। साहित्यकार और पत्रकार हैं जो क़ाग़ज़ का कोटा खाए चले जाते हैं। नौकरीशुदा टीए डीए बनाने में सारा ब्रेन लगा रहे हैं।

फिर वह ठग क्यों है !?


क्या वह दूसरों से कुछ कम प्रवीण है, कुछ कम शातिर है !? 


कहते हैं कि वह बड़ी सफ़ाई से पैसा लूटकर लड़कियों को ठिकाने लगा देता है। लड़कियों की भी क्या ग़लती ? वे जिन दूसरों से प्रभावित हो जातीं हैं वे इससे कितने अलग होते हैं ? वह भी क्या करे अगर ज़्यादातर लड़कियां प्रभावित ही उससे या उससे मिलते-जुलते लोगों से होतीं हैं ? शायद इसीलिए इसका बहुत कुछ उन लोगों से मिलता-जुलता-सा है! और अगर सब कुछ इतना मिलता-जुलता-सा है तो फिर लड़कियां भी क्या करें  ?


ठगों की ख़ासियत ही क्या है ? यही न कि वे कोई सबूत नहीं छोड़ते! वे अगर थोड़े और शातिर होते तो शुरु से एक इमेज बनाकर भी रखते। ‘बड़ों’ से संबंध बनाकर भी रखते। फिर शायद कभी जेल जाने की भी नौबत न आती।


मीरा शर्मा भी इन मुद्दों को लेकर काफ़ी सेंसेटिव दिखाई गई है। वह तीन-चार बार पोलिस ऑफ़िसर से छोटी-छोटी बहसें करती है।

फ़िल्म देखी जा सकती है। रनदीप हुडा(चार्ल्स) अपनी पिछली फ़िल्मों से बेहतर हैं। रिचा चड़ढा(मीरा) भी ठीक-ठाक हैं।

-संजय ग्रोवर
01-11-2015


Friday 30 October 2015

अंडरट्रायल: नारीमुक्ति बनाम मानवीय यथार्थ

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पिछले कुछ सालों में कुछ ऐसी शानदार और प्यारी फ़िल्में देखीं कि कई बार मन हुआ लोगों को बताऊं कैसी अच्छी-अच्छी फ़िल्में अपने यहां बनतीं हैं मगर न जाने क्यों चर्चा में नहीं आ पातीं! 

तब तक यह ब्लॉग शुरु नहीं किया था।

पिछले दो-चार दिनों में दो फ़िल्में देखीं जिनमें से एक के प्रमुख किरदार रघुबीर यादव हैं तो दूसरी के राजपाल यादव हैं। 2007 में बनी इस दूसरी फ़िल्म का नाम है ‘अंडरट्रायल’-

सागर हुसैन(राजपाल यादव) पर अपनी तीन बेटियों से बलात्कार का आरोप है। जेल में हर कोई उससे नफ़रत करता है और उसे मारने या ग़ाली देने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ता। 

उसका मुक़दमा स्त्रियों पर जुल्म करनेवालों से सख़्ती से पेश आनेवाली जस्टिस जया रेड्डी(प्रतिमा क़ाज़मी) की अदालत में चल रहा है।

नादिर साहब (मुकेश तिवारी) उस जेल के ऐसे वासी हैं जो घृणा और बहिष्कार में विश्वास नहीं करते। अंततः साग़र हुसैन और नादिर साहब में एक छोटे-से रिश्ते की शुरुआत होती है।

विभाजित व्यक्तित्व वाली एक स्त्री(सागर हुसैन की पत्नी समीना हुसैन की भूमिका में मोनिका कैस्टेलिनो) जो ज़िंदग़ी की चमक-दमक का भी पूरा मज़ा लेना चाहती है और सभ्यता के पुराने मानदंडों पर खरा उतरनेवाला व्यवहार निभाने में भी पूरी तरह दक्ष है, साथ ही अपने भीतर की क्रूरता को भी पूरी सफ़लता के साथ भीतर भी छुपाए रखती है, के रोल में मोनिका कैस्टेलिनो ने ऐसा यथार्थपरक अभिनय किया है जो कभी-कभार ही देखने को मिलता है। मध्यांतर के बाद दिल हिला देनेवाली इस फ़िल्म में मोनिका का अभिनय फ़िल्म के प्रभाव को कई गुना बढ़ा देता है।
यथाथपूर्ण दृश्यों से भरी और बनी इस फ़िल्म में राजपाल यादव के अभिनय-सामर्थ्य का पूरा योगदान है। 

हां, इतना ज़रुर है कि फ़िल्म में हर अच्छी बात ख़ुदा/ऊपरवाला या पुराने मूल्यों के हवाले से कही गई है, जोकि मैं तो क़तई हज़म नहीं कर पाता।

इससे ज़्यादा मैं कुछ नहीं कहना चाहता, आप चाहें तो स्वयं इसे देखें और स्वयं ही समझें।

इतना ज़रुर कहूंगा कि मोनिका कैस्टेलिनो के अभिनय की ख़ातिर मैं इसे एक-दो बार और देख सकता हूं।

30-10-2015

पहले मैंने सोचा कि आप ख़ुद ही देखें, ख़ुद ही निष्कर्ष निकालें। फिर, आज सोचा कि जो बातें मैं कहना चाहता हूं, वो तो मैं ही कहूंगा।

फ़िल्म बताती है कि इस दुनिया में नादिर और साग़र जैसे लोग हैं तो आमरे जैसे लोग भी हैं। आमरे जो महीन फ्रेम का चश्मा लगाता है, बहुत नफ़ासत या सभ्यता के साथ बात करता है (मुझे मशहूर मुहावरा याद आ जाता है-‘प्रैक्टिस मेक्स् अ मैन परफ़ैक्ट’), चेहरे से सौम्य और कूल दिखाई देता है मगर स्त्रियों से अपने मनपसंद काम करवाने के मामले में मुर्दा होने की हद तक क्रूर भी है। याद रखना चाहिए कि इस देश में ऊंची कही जानेवाली जातियों, वर्णों और वर्गों ने लगभग इसी नफ़ासत, सभ्यता, दक्षता, धैर्य और ‘कूलता’ का प्रदर्शन करते हुए लगातार ख़ुदको ऊंचा साबित किए रखा है।

फ़िल्मकार ने तो ख़ैर, पुराने मूल्यों और ख़ुदा के सहारे और हवाले से अपनी बात कही है मगर मैं इस फ़िल्म के बहाने अपनी कुछ बातें कहना चाहता हूं-

समीना के किरदार में मुझे आज की बहुत-सारी औरतें दिखाई देती हैं जो पिछले पांच-दस हज़ार सालों में हुए सारे काले-पीले कारनामों का इल्ज़ाम अपने किसी पति, किसी पिता, किसी भाई, किसी पुत्र, किसी पड़ोसी पर डाल देना चाहतीं हैं। वे अपने घर के अंदर के एक-दो लोगों से तो लड़ती रहतीं हैं मगर घर के बाहर के सारे मर्द, ख़ासकर आमरे जैसी नफ़ासत और पॉलिश वाले, उससे ज़रा उन्नीस या इक्कीस मर्द उन्हें एकाएक महान लगने लगते हैं। वे यह नहीं सोच पातीं कि अपने जिस पति, पिता, भाई, पुत्र, पड़ोसी को वे सौ प्रतिशत विलेन घोषित किए दे रही हैं वे भी जब घर से बाहर निकलते हों तो दूसरी स्त्रियों के साथ शायद आमरे जैसे ही ‘धैर्य’ और ‘संस्कृति’ के साथ पेश आते हों। वे यह भी नहीं सोच पातीं कि जो दूसरे मर्द उनके साथ पूरी नफ़ासत और सभ्यता का प्रदर्शन करते हैं, अपने घर में कैसे पेश आते हैं यह भी पता करना चाहिए।

मैं फ़िल्मकार की तरह स्त्री(या मनुष्य) की इच्छाओं और उन्हें पूरा करने के तरीक़ों पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता, अपने मन और शरीर के साथ सभी को अपने तरीक़े से व्यवहार करने का लोकतांत्रिक हक़ है, मगर मैं सोचता हूं कि सागर हुसैन तो इस सारे चक्कर में ख़ामख़्वाह ही लपेटे में आ गया है। किसी स्त्री की इच्छाओं को पूरा करने के लिए सागरों को वे काम क्यों करने चाहिए जो उन्हें पसंद नहीं, जो इच्छाएं उनसे इस रिश्ते (शादी या प्रेम) से पहले ख़ुले तौर पर व्यक्त भी नहीं की गईं थीं। 

सागरों के साथ तो यह अन्याय ही है। 

आमरे की भूमिका करने वाले सज्जन ने भी अच्छा अभिनय किया है।




-संजय ग्रोवर
31-10-2015


Saturday 3 October 2015

सुर्ख़ाब : बिना राखी और तिलक के, भाई की रक्षा

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पंजाब के किसी उदास और सुनसान-से गांव में जीत नाम की भली-भोली-सहमी-सकुचाई-सी एक लड़की अपनी मां के साथ रहती है। पता नहीं कैसे उसने सीखा होगा मगर कराटे वह बख़ूबी जानती है। हमउम्र भाई परगट कभी कनाडा में जा बसा था। वह भी चाहती है और मां भी चाहती है कि कभी वह कनाडा जाकर भाई से मिले।

मंत्री भुल्लर का लड़का जीत से ज़बरदस्ती करने की कोशिश करता है और ग़ुस्साई जीत कराटे के एक-दो दांव उसपर आज़मा बैठती है। मंत्री के गुंडे उसे ढूंढते-ढूंढते उसकी गली तक आ पहुंचते हैं। अब मां चाहती है कि वह जल्दी से जल्दी कनाडा के लिए निकल जाए।

एजेंट कुलदीप और बलबीर, उसे जल्दी और कम ख़र्च में कनाडा पहुंचाने के एवज में एक सौदा करते हैं कि उनका एक बैग भी उसे अपने सामान की तरह कनाडा पहुंचाना होगा। जीत के पास मानने के अलावा कोई चारा भी नहीं है।

कनाडा में जैसे-तैसे अभी अपने भाई तक पहुंची ही होती है कि कुछ गुंडे भाई को उठा ले जाते हैं।  घबराई-घबराई-सी एक लड़की किस तरह ख़ुदको संभालकर अपने भाई को मुक्त कराती है, देखकर अच्छा लगता है। अंततः डिशवॉशर भाई के साथ वह भी उसी रेस्तरां में वेट्रेस का काम करने लगती है।

इंटरनेट पर चलते-फ़िरते कई बार ऐसी कमनाम या गुमनाम फ़िल्में देखने को मिल जातीं हैं कि एक-दो दिन तक मूड अच्छा-अच्छा-सा बना रहता है। 
जीत के रोल में बरखा मदान ने बहुत ही सहज और प्राकृतिक अभिनय जिया है। कबूतरबाज़ कुलदीप के रोल में सुमित सूरी भी जमे हैं। दरअस्ल 
ज़्यादातर कलाकारों का अभिनय इतना सहज है कि फ़िल्म देखते हुए फ़िल्म देखने जैसा अहसास कम ही होता है।

निर्देशक संजय तलरेजा को भी इसका क्रेडिट मिलना ही चाहिए।

फ़िल्म की दो-तीन ख़ास बातें-

1. फ़िल्म में कहीं भी नाटकीय स्थितियां नहीं गढ़ी गईं हैं, ताली/सीटी बजवाऊ डायलॉग इस्तेमाल नहीं किये गये हैं, हालांकि फ़िल्म में ऐसी संभावनाएं कई जगह मौजूद थी। एक सीधी-सादी लड़की का जूडो-कराटे जानना और परेशान करने वाले परिचित लड़के को तीन-चार बार उठाकर पटक देना एक ऐसी ही स्थिति है। कोई दूसरा फ़िल्मकार इस स्थिति को भुनाने के लोभ से शायद ही बच पाता।

2. फ़िल्म में नारीमुक्ति का कहीं चर्चा तक नहीं है हालांकि जूडो-कराटे जानने और परदेस में भाई को बचाने जैसी घटनाओं में इसकी भी अच्छी-ख़ासी संभावनाएं थीं। कपड़ों को लेकर भी यहां कोई बड़बोली भाषणबाज़ी नहीं है जबकि सलवारसूट में कनाडा पहुंची जीत आखि़री दृश्य में स्कर्ट पहने खाना सर्व करती नज़र आती है।

3. फ़्लैशबैक के टुकड़े इस फ़िल्म में भी लगातार वर्तमान का पीछा करते हैं मगर यह इतनी तरतीब से होता है कि फ़िल्म को समझने में कहीं कोई परेशानी नहीं आती। अभी थोड़ा अरसा पहले कोई फ़िल्म(नाम याद आने पर लिखूंगा) देखी थी जिसमें फ़्लैशबैक इस अजीब ढंग से कहीं भी घुसा आता था कि दिमाग चकरा गया और फ़िल्म देखना मुश्क़िल हो गया।  


-संजय ग्रोवर
03-10-2015




Sunday 21 June 2015

दिल धड़कने दो-एक कुत्ते की स्वामीकथा

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परिवारवाद राष्ट्रवाद का संक्षिप्त संस्करण है। मनोजकुमार तथाकथित राष्ट्रवाद पर फ़िल्में बनाते थे और सबसे महान राष्ट्रवादी का रोल ख़ुद कर लेते थे। आजकल नारीवाद और नारीवादी की अच्छी प्रतिष्ठा है। ज़ोया ने अपने भैय्या (फ़रहान) को महान नारीवादी का रोल दिया है। लोग दूसरों के पैसों पर चढ़कर हीरो बनते हैं तो आदमी ख़ुद ख़र्चा कर रहा हो तो अपने परिवार के आदमी को अच्छा रोल देने में हर्ज़ा भी क्या है ? वैसे, ख़र्चे-वर्चे का ठीक-ठीक आइडिया मुझे नहीं है, तुक्का मार रहा हूं। 

यह कोई संयोग नहीं है कि पत्रकारों से लेकर कलाकारों तक सभी धर्म, जाति, नस्ल का विरोध करते दिखते हैं लेकिन अपने मां, बाप, भाई, बहिन, चाचा, मामा, मुन्नू, टिन्नी....हर किसीके लिए उनके मुंह से सिर्फ़ तारीफ़ ही तारीफ़ फूटती है। जिस अहंकार से ख़ानदानवाद या परिवारवाद पैदा होता है उसीसे राष्ट्रवाद भी पैदा होता है। परिवारवाद अहंकार के पोषण की पहली सीढ़ी है, राष्ट्रवाद तो बहुत बाद में आता है। जिन्होंने पहली सीढ़ी पूरे गर्व के साथ बनाई हो उन्हें बाद की सीढ़ियों पर हैरान नहीं होना चाहिए।


चलिए, इसे फ़िलहाल छोड़िए, जिस डायलॉग/तर्क
 के ज़रिए फ़रहान को हीरो बनाने की कोशिश की गई है, वह नया नहीं है, मैं ख़ुद कई दफ़ा बोल चुका हूं। यहां ज़रा भाषा बदली हुई है। फ़रहान, राहुल बोस से कहते हैं कि अगर स्त्री-पुरुष बराबर हैं तो तुम उसे अनुमति देनेवाले कौन होते हो कि वह क्या करे, क्या न करे ?

अब मैं एक सवाल पूछना चाहता हूं कि अगर ऐसा है तो स्त्रियां जगह-जगह तख़्तियां लिए क्यों भटक रहीं हैं कि हमें यह चाहिए या वह चाहिए ? वे आखि़र किससे अपने हक़ मांग रहीं हैं !? हक़ तो फ़िर उनके पास हैं ही, वे उनका इस्तेमाल क्यों नहीं करतीं !? और याद रखें कि वे अनपढ़, ग़रीब और कमअक़्ल स्त्रियां नहीं हैं, उनमें फ़िल्मइंडस्ट्री से लेकर बुद्धिजीवी तबक़े की स्त्रियां शामिल हैं।  


नहीं! बात सिर्फ़ इतनी नहीं है। हमारे हक़ क्या हैं, यह जानने के लिए एक निडर और स्वार्थहीन समझ चाहिए, एक स्वतंत्रबुद्धि चाहिए, जो कि पुरुषों में भी फ़िलहाल दिखाई नहीं पड़ती। पुरुष भी पुरानी कंडीशनिंग के ग़ुलाम हैं, सिर्फ़ स्त्री के संदर्भ में नहीं, पूरे जीवन के संदर्भ में। परंपरा, रीति-रिवाज, इतिहास, पुराण, मिथक, सभ्यता, संस्कृति, राष्ट्रीयता, धर्म, जाति, सफ़लता, श्रेष्ठता, पुरस्कार, मशहूरी, परिवार......जैसे ईंट और रोड़ों को मिलाकर हमने जो दड़बा बनाया है और उसमें जो कुनबा बसाया है उसके पास कोई अपनी सोच पैदा हो सके, ऐसी कोई संभावना हमने छोड़ी ही नहीं है। 


उक्तवर्णित दृश्य फ़िल्म में काफ़ी बाद में आता है, उसके पहले की फ़िल्म बोर करती है। टिप्पणीकार की आवाज़ फ़िल्म में रोचकता बनाती है, लेकिन जिन्होंने कृश्नचंदर का उपन्यास ‘एक गधे की आत्मकथा’ पढ़ रखा होगा उन्हें ‘एक कुत्ते की मालिक़कथा’ में उतना रस शायद ही आए।


राहुल बोस ने ‘ऊपर से प्रगतिशील, अंदर से ठसबुद्धि’ पारंपरिक भारतीय पति/मर्द का शानदार अभिनय किया है। एक चिढ़ी-चिढ़ी, ख़ाली-ख़ाली, उलझी-उलझी अमीर पत्नी को शेफ़ाली ने अपनी गोल और बड़ी आंखों के साथ काफ़ी हद तक बाहर निकाला है।


‘कबीर’ नाम का दुरुपयोग अपने यहां आम है, उसमें कुछ हो भी नहीं सकता ; लोकतंत्र जो ठहरा।


उस एक दृश्य के लिए फ़िल्म देखी जा सकती है जब अपनी पत्नी (प्रियंका चोपड़ा) पर मालिक़ाना हक़ जमाते राहुल बोस को उसका साला कबीर (रणवीरसिंह) ‘ओए’ कहकर संबोधित करता है और ससुर कमल मेहरा (अनिल कपूर) उसकी गर्दन पकड़कर उसे दीवार से लगा देता है। इस दृश्य में शाब्दिक और शारीरिक हिंसा ज़रुर है मगर यह दृश्य अजीबोग़रीब भारतीय सामाजिकता में जमाईबाबू की पारंपरिक शासक की/शाही स्थिति पर दर्शकों को दोबारा सोचने को मजबूर कर सकता है। 


व्यंग्यात्मक जुमलों के सहारे टिप्पणीकार (पालतू कुत्ता प्लूटो मेहरा) ने रिश्तों के पीछे छुपे पाखंड और स्वार्थ को उघाड़ने की अच्छी कोशिश की है मगर एक तो कुत्ता क़तई जीवंत नहीं लगता, कई दूसरी फ़िल्मों में जानवरों से इससे बेहतर काम लिया गया है। दूसरे, अगर यह कहानी किसी मध्यवर्गीय परिवार की होती तो पाखंड और स्वार्थ के 
इस यथार्थ को भारतीय दर्शक ज़्यादा नज़दीक से देख और पहचान पाता।

देश की (तथाकथित) हाई सोसाइटी में तलाक़ को लेकर जैसे डर, हिचक और झिझक इस फ़िल्म में दिखाए गए हैं उससे लगता है जैसे हम 1980-90 के दौर की कोई फ़िल्म देख रहे हैं।

अगर आपने यह फ़िल्म देख ली हो तो कृपया बताएं कि इस फ़िल्म में नारीमुक्ति के संदर्भ में धर्म पर कितनी बार टिप्पणी की गई है ?


-संजय ग्रोवर
21-06-2015


Thursday 4 June 2015

जब रिएलिटी शोज़ नहीं थे

एक वक़्त था जब पूरी ‎हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री‬ हर तरह के गानों के लिए 8-10 गायकों पर निर्भर थी। किशोर कुमार‬, ‎मोहम्मद रफ़ी‬, ‎मुकेश‬, ‎महेंद्र कपूर‬, ‎मन्ना डे‬, ‪‎लता मंगेशकर‬, ‎आशा भोंसले‬....तत्पश्चात्.....कभी-कभार ‎अनवर‬, ‎मनहर‬, ‎वाणी जयराम‬,  ‎सुमन कल्याणपुर‬ को भी एकाध गाना मिल जाता था। ‎सहगल‬, ‎तलत महमूद‬, ‎मुबारक़ बेग़म‬, ‎गीता बाली‬ वगैरह पहले ही निपट चुके थे। कई बार ऐसा होता कि रेडियो पर सुनते-सुनते आपका पसंदीदा हो गया कोई गाना जिसे आप हीरोइन या किसी महिला चरित्र पर फ़िल्माया गया समझ रहे होते थे, हॉल में जाकर पता लगता कि यह तो किसी बच्चे या किशोर लड़के पर फ़िल्माया गया है। मज़ा कुछ किरकिरा हो जाता। गायकी में इंडस्ट्री का हाथ इतना तंग था कि नयी-नयी आई, बच्ची-सी दिखतीं ‪‎पद्मिनीकोल्हापुरे‬ या ‎भाग्यश्री‬ के लिए भी ‎लता दीदी‬ को गाना पड़ता।

फ़िर एकाएक, न जाने कहां से, ‎गुलशन कुमार‬ और ‪‎टी सीरीज़‬ प्रकट हुए। उनकी ख़्याति चाहे जैसी रही हो पर उनकी वजह से ‪सोनू निगम‬ और अनुराधा पौंडवाल‬ जैसे नए गायकों को भी जगह मिलने लगी। इस बीच ‘‪पाक़ीज़ा‬’ और ‘‪‎उमराव जान‬’ के मुज़रों की तुलना करते हुए कई बार यह भी लगता कि आशा भोंसले कहीं ज़्यादा टेलेंटेड गायिका है, उन्हें जो जगह मिलनी चाहिए थी, नहीं मिली। इस बीच ‎शब्बीर कुमार‬ और ‪मोहम्मद अज़ीज़‬ जैसे गायकों का आना-जाना होता रहता था।


और भारत में केबल टीवी क्या आया कि गायकी का सारा परिदृश्य बदल गया। विदेशी शोज़ की नकल पर बने ‘‪‎इंडियन आयडल‬’ और ‘‎सारेगामा‬’ जैसे टीवी रिएल्टी शोज़ ने फ़िल्म इंडस्ड्री के बंद दरवाज़ों को पूरी तरह खोल दिया। उस नयी और लोकतांत्रिक हवा को मेरे और आपके घर के बच्चे भी महसूस कर सकते थे और कोशिश करें तो छू भी सकते थे। आज ‘बीड़ी जलइले’ जैसे गानों को मुबारक़ बेग़म और लता मंगेशकर के गले से सुनने की कल्पना ही अजीब लगती है। जबकि सुनिधि चौहान से इनका कोई भी गाना गवाया जा सकता है। आज फ़िल्म इंडस्ट्री में जितने नए नायक/नायिका आते हैं, उतनी ही संख्या में गायक/गायिका भी तैयार मिलते हैं। अब ब़ाल नायक को पचास साल के गायक के गाए गीत पर होंठ हिलाते हुए बेतुका और अजीब-सा दिखने की नौबत नहीं आ सकती, बहुत सारे बाल गायक उपलब्ध हैं।


यह बदलाव राहत देता है, ताज़गी देता है, लोकतंत्र के सही मायने बताता है, हमें इसकी कद्र करनी चाहिए।


यह तो अच्छा है कि फ़िल्म-इंडस्ट्री में सन्यास की परंपरा नहीं है, वरना बहुत-सारे बुज़ुर्गवार घर बैठे होते।


-‎संजयग्रोवर‬

02-11-2013
(On FaceBook)

Saturday 30 May 2015

Tanu Weds Manu Returns तनु वेड्स मनु रिटर्न्स

इस फ़िल्म के बारे में आवश्यक जानकारियां आप इन दो लिंक्स् पर क्लिक करके देख सकते हैं-
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तनु त्रिवेदी (कंगना रानाउत) और मनोज शर्मा (माधवन) की शादी को चार साल हो गए हैं, उनमें झगड़े इतने बढ़ चुके हैं कि फ़िल्म के दूसरे ही दृश्य में वे किसी ऐसी संस्था में दिखाई देते हैं जहां ऐसे झगड़े निपटाए जाते हैं।

वे एक-दूसरे के खि़लाफ़ बेसिर-पैर के तर्क देने लगते हैं। कभी लगता है कि दोनों ही सही हैं तो कभी लगता हैं दोनों मूर्ख हैं। ज़िंदग़ी में भी कई कर्मकांड, संस्थाएं और रीति-रिवाज बेसिर-पैर के होते हैं और मूर्खताओं के बल पर ही चलते हैं। 


कांउंसलर्स से बात करते-करते वे आपस में झगड़ने लगते हैं, मनु इतना उत्तेजित हो जाता है कि तोड़-फ़ोड़ पर उतर आता है। गार्डस् उसे पकड़कर (संभवतः)पागलख़ाने में बंद कर देते हैं।

पागलख़ाना ही होगा, फ़िल्म में स्पष्टतः दिखाया नहीं गया कि यह कौन-सी संस्था है, मैं अपने अंदाज़े से कुछ भी क्यों लिखूं?


आजकल जो भी फ़िल्म देखो, उसके पात्रों में मिश्रा, शुक्ला, त्रिवेदी, बनर्जी, उपाध्याय, बंदोपाध्याय, तिवारी वग़ैरह दिखाई देते हैं। लगता है भारत का निन्यानवें प्रतिशत हिस्सा इन्हीं सब लोगों के हाथ में है। इक्का-दुक्का दूसरे नामों वाले पात्र भी जगह पाते हैं। बाक़ी बचा-ख़ुचा एकाध प्रतिशत भारत बचे-ख़ुचों के लिए भी है। 


तनु कानपुर लौट आती है। रिक्शेवाला उसका पुराना जानकार है, वह उसके हाल-चाल लेती है, घर में घुसने से पहले उससे गले भी मिलती है।


यह आदमी निन्यानवें प्रतिशत में आता होगा कि एक प्रतिशत में, मैं सोचता हूं। मुझे सोचने की गंदी आदत है।

तनु का कमरा वक़ालत पढ़ रहे एक छात्र को किराए पर दे दिया गया है। वह तनु को दीदी भी कहता है और उसपर दिल भी रखता है। यह भारतीय संस्कृति का यथार्थवादी ‘पवित्र’ पहलू है।

मनु भी भारत लौट आया है। एक दिन उसे एक लड़की मिलती है जो तनु जैसी दिखती है। पहले वह उसे तनु समझकर पसंद करने लगता है। बाद में जब पता चलता है कि वह तनु नहीं है, हरियाणा की ऐथलीट कुसुम सांगवान (कंगना का डबल रोल) है, तब भी वह उतनी ही मात्रा में उसे पसंद करता रहता है।

थोड़े बहुत झगड़े-टंटे के बाद कुसुम भी 'सर्माजी' पर रीझ जाती है। कुसुम के घरवाले भी तैयार हो जाते हैं। इधर तनु का भी मन बदल गया है, क्यों बदल गया है, कुछ स्पष्ट नहीं है।

वह तनु जो अपनी बहिन को देखने आए लड़केवालों के सामने तौलिया पहनकर आ जाती है और उनसे बिंदास बातचीत करती है, वह तनु जो अपने किसी छुटकू रिश्तेदार से बिगड़े-बिछड़े पति की चिट्ठी पढ़वाते हुए उसे ‘उल्लू का पट्ठा’ कहने को प्रेरित करती है, वह जो अपनी बहिन से कहती है कि शादी के बजाय लाइफ़ में इसका कोई सार्थक विकल्प/उद्देश्य/मज़ा ढूंढो, वही एकाएक मनु शर्मा पर दोबारा क्यों लट्टू हो जाती है, इसकी कोई वजह समझ में नहीं आती, शायद बताने की कोशिश भी नहीं की गयी।  


वह अपने पुराने, होने-वाले-मगर-हो-न-सके पति(जिमी शेरगिल) को लेकर शादी में पहुंच जाती है। वह नहीं चाहती कि मनु की शादी दत्तो यानि कुसुम से हो। इधर दर्शकों को पता चल चुका है कि कुसुम की शादी पहले जिमी शेरगिल से होनेवाले थी।

लगता है जैसे सारी कहानी किसी एक ही गली-मोहल्ले में चल रही हो।

शादी के इस फ़िल्मफ़ेयर फ़ेस्टीवल में यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि तनु और मनु का विधिवत/क़ानून-सम्मत तलाक़ हुआ है या नहीं।

कुसुम हरियाणावी खिलाड़िन की चाल अच्छी-ख़ासी चलती है। तनु भी कई बार आत्मविश्वास से भरी चाल चलती है। कभी-कभार जब वह ‘ज़ंजीर’ और ‘मर्द’ के अमिताभ बच्चन की तरह हो जाती है तो हल्की-हल्की डरावनी भी लगती है।

कुसुम की आंखों में एक परमानेंट उदासी है, कंगना की आंखों में एक पीलापन है। यह मेकअप से हुआ या वास्तविक है, दिल्ली में बैठकर बताना मुश्क़िल है।

कुसुम की भूमिका में कंगना उस उजड्ड, उदास मगर प्यारी-सी देहाती लड़की की तरह लगतीं हैं जो कभी हममें से कई लोगों के दिल को भा गई थी, मगर ‘लोग क्या कहेंगे’ इस डर से आगे बढ़ने की हिम्मत न हुई। तमाम भारी-भरकम आवाज़, उजड्ड लहज़े और चीख़-चिल्लाहट के बावज़ूद उसकी मासूमियत ज्यों की त्यों बनी रहती है।

कंगना ने कुसुम के रोल में चाल-ढाल, शर्माने, घबराने, लड़ने और हरियाणवी बिलकुल अपनी बोली की तरह बोलने में कमाल किया है।

वैसे कुछ दूसरे पात्रों ने भी हरियाणवी को बिलकुल अपनी बोली की तरह बोलकर दिखाया है।  

तनु त्रिवेदी कभी फ़ुटपाथ पर शराब की बोतल लिए राज कपूर हो जाती है तो कभी मनु की बारात में गाना गाते हुए आमिर ख़ान लगने लगती है।

फ़िल्म में कॉमेडी कहीं-कहीं मज़ेदार है तो कहीं-कहीं सांस्कृतिक झटके भी मारती है।

न देखी हो तो देख लीजिए। अगर बदलाव में दिलचस्पी है तो मज़ा आएगा।

देखकर मेरी ग़लतियां बताएंगे तो ज़्यादा मज़ा आएगा।



-संजय ग्रोवर
31-05-2015


Sunday 17 May 2015

लगान और गुणगान

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एक-दो दिन पहलेलगान को याद कर रहा था। फ़िल्म मनोरंजक रही होगी, हिट तो थी ही, मैंने पूरी देखी नहीं थी। जितनी देखी उसमें जातिवाद को कमी और बुराई की तरह दरशाने की कोशिश अच्छी लगी थी। लेकिन फ़िल्म का मूल कांसेप्ट उस वक्त भी बचकाना लगा था।ऑस्करमिल जाता तो मुझे तो ज़रुर अजीब लगता। क्योंकि मैंने कभी ऐसी घटना या क़िस्सा नहीं सुना था कि किसी मुकदमें में न्याय-अन्याय का फ़ैसला कोई क्रिकेट मैच रखकर और उसमें हार-जीत के आधार पर किया गया हो।

दूसरे
किसी खेल का उदाहरण भी लें तो महाभारत का द्रोपदी-प्रसंग याद आता है। मानवीय मूल्यों में विश्वास रखनेवाला कोई भी शख़्स शायद ही इसे अच्छा उदाहरण मानेगा कि खेल में हार-जीत के आधार पर मनुष्यों को दांव पर लगा दिया जाए। आमिर ख़ान और उनके अच्छे कामों का प्रशंसक होने के बावज़ूद एक यथासंभव तार्किक और यथासंभव निष्पक्ष व्यक्ति होने के नाते मैंलगान’  का प्रशसंक नहीं हो सका। सोचिए कि कलको समस्याओं का समाधान अगरलगानकी तरह किया जाने लगे तो क्या होगा ? कोई व्यक्ति या समूह जातिवादी है कि नहीं, बलात्कारी है कि नहीं, भ्रष्टाचारी है कि नहीं, अपराधी है कि नहीं, क़ातिल है कि नहीं............. किसीको इनकमटैक्स, सेलटैक्स, बिजली बिल, पानी का बिल वगैरह पे करने चाहिए या नहीं, इसका फ़ैसला अगर दोनों पक्षों/व्यक्तियों/समूहों/समर्थकों में क्रिकेट मैच कराकर किए जाने लगें तो


मुझे
बताने की ज़़रुरत नहीं लगती, आप ख़ूब अंदाज़ा लगा सकते हैं कि क्या होगा।



-संजय ग्रोवर

15-11-2013


(अपने ही एक फ़ेसबुक-स्टेटस से एक अंश) 


Saturday 16 May 2015

पीकू: क़ब्ज़ से क़ब्ज़ तक!

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हिंदी फ़िल्म इण्डस्ट्री की बरसों से रुकी क़ब्ज़ एकाएक ख़ुल गई है। लगता है जैसे कोई बांध ढह गया हो और पानी के साथ तरह-तरह के पदार्थ---ठोस, द्रव्य और ग़ैसें निकलकर इधर-उधर या आपस में टकरा रहे हों। हीरोइनें अब हीरोइनों की तरह नहीं चलतीं, नाचतीं या बोलतीं, फ़िल्म के पात्र की तरह हंसतीं-रोतीं हैं। गांव, गांव जैसा लगता है। आगरा बिलकुल आगरा जैसा और हैदराबाद, हैदराबाद की तरह दिखता है। विषय भी नये से नये उठाए जा रहे हैं। हालांकि उठाईगिरी शब्द भी उठाने से ही बना लगता है और कई बार जब किसी नयी हिंदी फ़िल्म को देखते हुए अचानक किसी विदेशी फ़िल्म का दृश्य ज़हन में उभरने लगता है तो समझ में आता है कि ‘उठाने’ का यह अर्थ भी हम पर ठीक-ठाक तरीक़े से ‘अप्लाई’ होता है।

इस फ़िल्म का केंद्रीय विषय ‘पीकू’(दीपिका पादुकोण) से ज़्यादा उसके बाबा बैनर्जी(अमिताभ बच्चन) या उनकी क़ब्ज़ मालूम होते हैं। बाबा प्रगतिशील हैं और बड़ी सहजता के साथ पीकू के सैक्स-संबंधों की चर्चा करते हैं। क़ब्ज़ और सैक्स पर वे एक जैसी सहजता से बात करते हैं। जीवन के कई मसलों को वे पेट और क़ब्ज़ से जुड़ा मानते हैं या जोड़ देते हैं। वे क़ब्ज़ के मरीज़ हैं इस नाते अगर वे अपने सैक्स-जीवन की भी थोड़ी चर्चा करते तो दर्शकों को कुछ लाभ होता। यह इसलिए भी ज़रुरी था कि आगे की कहानी से भी इसका ख़ास संबंध है। बाबा पीकू के सैक्स-जीवन की तो चर्चा करते हैं मगर उसकी शादी के न सिर्फ़ खि़लाफ़ हैं बल्कि उसमें रोड़े अटकाने से भी बाज़ नहीं आते। यह अजीब इसलिए लगता है कि पीकू को शादी में दिलचस्पी है। बाबा स्वाथी भी कम नहीं हैं।


कलकत्ता का अपना एक पुराना मकान बेचने के लिए वे राना चौधरी(इरफ़ान) से गाड़ी किराए पर लेते हैं। चूंकि ऐन वक़्त पर कोई ड्राइवर उपलब्ध नहीं होता इसलिए राना ख़ुद ही कलकत्ता जाने का फ़ैसला करता है। इसके बाद बीच सफ़र में राना, बैनर्जी और पीकू की क़ब्ज़ सहित विभिन्न विषयों पर बातचीत और नोंकझोंक है। यह दिलचस्प बातचीत कलकत्ता में बैनर्जी के घर में रहने के दौरान भी जारी रहती है। यहीं पीकू और राना एक-दूसरे से ख़ुलते हैं। अंततः यहीं बैनर्जी की मृत्यु भी होती है।


यहीं एक हल्का झटका देनेवाला प्रसंग आता है। बैनर्जी की मृत्यु के बाद अकेली रह गयी पीकू को अपने आगे के सफ़र के लिए साथी तय करना है। राना से पहले वह जिस युवक की तरफ़ आकर्षित है और संभवत़ शादी को लेकर प्रतिबद्ध है, उससे पूछती है कि कहीं तुम्हे क़ब्ज़ तो नहीं है? और यह पता लगने पर कि उसे क़ब्ज़ है, वह उससे शादी न करने का फ़ैसला करती है। यहां दो बातें अजीब लगतीं हैं। एक तो यह कि ‘पीकू’ को अपने क़रीबी व्यक्ति की क़ब्ज़ के बारे में पहले से पता क्यों नहीं है? दूसरे, वह व्यक्ति पूरी तरह से स्वस्थ और ऐक्टिव है। ऐसे में सिर्फ़ क़ब्ज़ की वजह से किसी प्रिय को कैसे ठुकराया जा सकता है! बहरहाल इसके लिए जस्टीफ़िकेशन यह भी हो सकता है कि वह राना को पसंद करने लगी है। कलको पीकू को क़ब्ज़ हो जाए तो राना उसके साथ क्या करेगा और उसे प्रगतिशीलता माना जाएगा या तानाशाही, यह सवाल किसीके दिल में उठे तो इसे ख़ारिज़ कैसे किया जा सकता है? दरअसल मनोवैज्ञानिक नज़रिए से देखें तो यह संतानों का अपने माता-पिता से छुपी-दबी, चेतन-अचेतन घृणा का अतिरेक-से भरा प्रतिशोध है। यह एक क़ब्ज़ यानि अतिरेक को दूसरी क़ब्ज़ यानि दूसरे अतिरेक के सहारे भूलने की कोशिश जैसी लगती है। बहरहाल इसका दूसरा आयाम मानवता और उदारता है जिसमें वक़्त और परिस्थिति के अनुसार किसीको भी अपनी सोच-समझ से फ़ैसले लेने या बदलने की छूट होती है या होनी चाहिए।


बहरहाल, बंद भारतीय समाज को ऐसी फ़िल्मों की ज़रुरत है, इनका स्वागत होना चाहिए, इन्हें देखा जाना चाहिए। भारतीय समाज की मानसिक क़ब्ज़ को दूर करने के लिए ये ज़रुरी हैं।


हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री अपनी इस क़ब्ज़ का इलाज करने की कोशिश कर रही है, अच्छा लक्षण है। मगर इस इंडस्ट्री में और भी तरह-तरह की क़ब्ज़ें मौजूद हैं। क्या वजह है कि अभिषेक बच्चन को ढेरों फ़िल्में फ़्लॉप होने के बाद भी काम मिलता रहता है, ऋतिक रोशन की सिर्फ़ वही फ़िल्में चलतीं हैं जो पापा राकेश रोशन बनाते हैं, फिर भी वे क़ामयाब स्टार हैं, यही हाल शाहिद कपूर का भी है, मगर ये सब ‘सफ़ल’ हैं, ‘कार्यरत’ हैं। और चिराग़ पासवान बस एक फ़िल्म की असफ़लता के बाद अपने घर लौट आते हैं!? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम एक क़ब्ज़ को छुपाने के लिए दूसरी क़ब्ज़ को दूर हटाने का ज़रुरत से ज़्यादा प्रचार कर रहे हों!?


दीपिका पहले से ज़्यादा परिपक्व और सहज हुई हैं। अमिताभ बच्चन भी अपने रोल में फ़िट हैं। इरफ़ान शुरु से ही अच्छे अभिनेता हैं, यहां वे भी पहले से बेहतर हैं क्योंकि यहां अभिनेता इरफ़ान का ख़ास स्टाइल कम और पात्र की मौजूदगी ज़्यादा नज़र आती है।


-संजय ग्रोवर

16-05-2015



Sunday 3 May 2015

भ्रष्टाचार और फ़िल्मी ‘शक्तियां’

पिक्चर-हॉल में जब ईमानदार(!) हीरो बेईमान विलेन को मारता है तो हॉल तालियों से गूंज उठता है। अगर इस मुखर समर्थन से नतीजे निकालना चाहें तो अर्थ यही निकलता है कि पूरा हॉल भ्रष्टाचार-विरोधी है। फ़िल्म बनानेवाला भी भ्रष्टाचार-विरोधी है क्योंकि उसने भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ फ़िल्म बनाई है। फ़िल्म में पैसा लगानेवाले इसलिए भ्रष्टाचार-विरोधी हैं क्योंकि उन्होंने ऐसी फ़िल्म में पैसा लगाया है। सेंसर बोर्ड और उसके लोग इसलिए भ्रष्टाचार-विरोधी हैं क्योंकि उन्होंने इस फ़िल्म को पास कर दिया। आमिर ख़ान भ्रष्टाचार-विरोधी हैं क्योंकि उन्होंने ‘सत्यमेव जयते’ बनाया। लाखों दर्शक भी भ्रष्टाचार-विरोधी हैं क्योंकि वे इसे नियम से देखते थे। इसी तरह से प्रसारित करनेवाले चैनल और प्रायोजित करनेवाली कंपनियां भी भ्रष्टाचार-विरोधी हुए।

क्या मामला इतना ही सीधा और आसान है !?

फिर भ्रष्टाचार करता कौन है!?  

क्या बड़े बजट की फ़िल्में व्हाइट मनी से बनतीं हैं!?

छोड़िए। उस फ़िल्म की बात करते हैं जिसे लोग गंभीरता से लेते हैं। ‘सारांश’ के मास्टरजी जब हर तरफ़ से निराश हो जाते हैं तो संबद्ध विभाग में मौजूद एक पुराना शिष्य उन्हें पहचान लेता है और उनकी मदद करता है। जहां तक मुझे याद आता है वह मास्टरजी से कहता है कि आपने जो शिक्षा दी थी उसीका परिणाम है कि मैं आपकी मदद कर रहा हूं। अगर इसे हम सच मानें तो होना यह चाहिए कि मास्टरजी के सभी शिष्य इसी तरह से लोगों की मदद कर रहे होंगे। हालांकि मुझे नहीं याद कि मास्टरजी उससे पूछते हैं या नहीं कि मुझसे पहले मेरे जैसे कितने लोगों की मदद तुमने की? अगर की तो उनकी ईमानदारी की वजह से की या जान-पहचान की वजह से की? जान-पहचान, अपनी जाति, अपनी रिश्तेदारी, अपने मोहल्ले, अपनी दोस्ती, अपने लिंग, अपने शहर आदि का होने की वजह से किसीकी मदद करना समस्या का हल नहीं है, समस्या की जड़ है। यहां ईमानदार लोगों के काम सिर्फ़ रिश्वत वालों की वजह से नहीं रुकते, जान-पहचान, जुगाड़, प्रभाव वालों की वजह से भी रुकते हैं। अभी एक चैनल ने अपनी इस ‘उपलब्धि’ के लिए अपनी ख़ूब तारीफ़ की कि उसने किसी वृद्ध व्यक्ति के 20-22 साल से रुके काम को करवा दिया। उपलब्धि यह तब होती जब चैनल का कोई व्यक्ति साधारण व्यक्ति की तरह जाकर इस काम को कराता। चैनल के नाम, कैमरे और लाव-लश्कर के साथ काम कराना ‘प्रभाव’ डालना है। ‘प्रभावशाली’ व्यक्तियों या संस्थाओं के काम यहां पहले होते हैं इसलिए साधारण लोगों के काम रुक जाते हैं, यही तो असल समस्या है। पर टीवी और फ़िल्मवाले अकसर इसी तरह के हल सुझाते हैं।

‘गब्बर इज़ बैक’ में अक्षय एक प्राइवेट हॉस्पीटल में अमानुषिक भ्रष्टाचार होता देखते हैं और मोबाइल रिकॉर्डिंग के ज़़रिए इससे जूझने की योजना बनाते हैं, यहां तक बात समझ में आती है। मगर बाद में वे जिस तरह हवा में लात-घूंसे चलाते हैं और लोगों को चींटियों की तरह उड़ाते हैं वह क्या आम आदमी के लिए संभव है ? क्या हर आदमी को ख़ली या दारासिंह बनना पड़ेगा ? फ़िल्म और टीवी की पूरी क़वायद किसी ‘चमत्कारी शक्ति’ की खोज पर जाकर ख़त्म होती है। सवाल यह है कि चमत्कारी शक्तियां किसीको मिल भी जाएं तो क्या गारंटी है कि वह उनका इस्तेमाल ईमानदारी के पक्ष में करेगा ? क्या भ्रष्टाचार करनेवाले ज़्यादातर लोग वही नहीं हैं जिन्होंने किसी न किसी तरह कुछ शक्तियां जमा कर लीं हैं ? सवाल यह भी है कि व्यक्ति ईमानदार हो या बेईमान, वह दूसरों से ज़्यादा, दूसरों से अलग़ कुछ शक्तियां इकट्ठा करना ही क्यों चाहता है? एक सभ्य और मानवीय समाज में इन शक्तियों की आवश्यकता या उपयोगिता आखि़र क्या है ? क्यों है ? एक बच्चे में शक्ति और मशहूरी की आकांक्षा जन्मजात और प्रकृति की देन है या किन्हीं संस्कारों के तहत जान-बूझकर घुसेड़ी गई है? ये संस्कार किस तरह के लोगों ने बनाए हैं ? वे आखि़र चाहते क्या हैं/थे? कहीं शक्ति/मशहूरी/ऊंचाई की आकांक्षा ही तो लोगों को भ्रष्ट नहीं बना देती?


-संजय ग्रोवर
03-05-2015

Friday 1 May 2015

मेरा ट्रेलर: गब्बर इज़ बैक

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भ्रष्टाचार दूर करना फ़िल्मकारों का पुराना शौक़ रहा है।

इस फ़िल्म को देखकर समझ में आता है कि भ्रष्टाचार दूर करने के दो तरीक़े हैं-एक, आपके पास एक अच्छा फ़ाइटमास्टर होना चाहिए ; दूसरे, एक उत्साही संवादलेखक भी होना चाहिए।

ये दोनों हों तो आप दो-तीन घंटे में भ्रष्टाचार दूर कर सकते हैं। पहले भी कई फ़िल्मों में यह किया जा चुका है।

अगर आप थिएटर में भ्रष्टाचार दूर कर रहे हैं तो पॉपकॉर्न और कोल्डड्रिंक साथ ले सकते हैं, घर में देखें तो साथ में हलवा, पकौड़े और अन्य पकवान स्वादानुसार ले सकते हैं।

इस फ़िल्म के बाद मेरे अंदर एक भी चेंज नहीं आया इसलिए मैंने एक चेंज ज़बरदस्ती कर लिया है (जितने दिन चलेगा, चलेगा) ; आगे से मैं फ़िल्म कलाकारों के अभिनय का वर्णन इस भाषा में किया करुंगा कि फ़लां साहब ने अभिनय ईमानदारी से किया है और फ़लां ने थोड़ा भ्रष्टाचार मिला दिया है। ऐसी फ़िल्मों से ऐसे ही चेंज आते हैं।

मैं फ़िल्मों को कोई रैंक नहीं दूंगा, जो भी आह!, वाह!, उफ़!, हाय!, उई! दिल या दिमाग़ से सहज ही निकल पड़ेगा, वही लिख दूंगा।

इससे ज़्यादा नहीं खींच सकता ; प्रोड्यूसर, डायरेक्टर, फ़ाइनेंसर, ऐक्टर वग़ैरह के नाम गूगल में डालकर पताकर लीजिए, प्लीज़।

यह समीक्षा का ट्रेलर है, जहां पूरी समीक्षा की ज़रुरत होगी, पूरी भी लिखूंगा।



-संजय ग्रोवर
01-05-2015


Monday 20 April 2015

कृश 3

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कल
कृश नाम की फ़िल्म की कुछ 'झलकैय्यां' देखने को मिल गईं जिसके बारे में कहा जा रहा है कि बड़े ग़ज़ब की फ़िल्म है और बड़ा अच्छा बिज़नेस कर रही है। यह ज़रुर संभव है कि अच्छा बिज़नेस कर रही हो, (अच्छा बिज़नेस कैसे होता है, इसे लेकर अब मेरे मन में तो कोई संदेह बाक़ी भी नहीं रह गया) मगर अच्छी फ़िल्म कैसे है, समझ में नहीं आया!? तकनीक़ी दृष्टि से देखें तो कहीं भी यहसुपरमैनयाबैटमैनकी फ़िल्मों से आगे नहीं ले जाती। आजकल इंटरनेट पर विदेशी साइट्स् पर कई फ़िल्में उपलब्ध हैं, आप देखकर स्वयं तुलना कर सकते हैं। नैतिक और सामाजिक दृष्टि से देखें तो यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण को हतोत्साहित करने के लिए ही विज्ञान के दुरुपयोग की भारतीय परंपरा का ही विस्तार लगती है। जाने-अनजाने में फ़िल्म बताती है कि भगवान किस दृष्टि से और कैसे लोगों ने गढ़े होंगे। शक्तियां, नायक और ख़लनायक, दोनों के पास हैं, मगर जैसा कि इमेज गढ़ने का खेल है, स्थापित यह किया जाता है कि नायक इन शक्तियों का इस्तेमाल दूसरों के भले के लिए करता है जबकि खलनायक स्वार्थ के लिए। पहली तो बात यह कि इस तरह की अमानवीय शक्तियों की बात करना जो हमेशा कहानियों-क़िस्सों के अलावा कभी संभव नहीं हो पाई, क्या अंधविश्वासों की सबसे निचली पायदान पर खड़े समाजों को पूरी तबाही की तरफ़ अग्रसर करना नहीं है ?सबसे हास्यास्पद तो यह है कि फ़िल्म मेंक्षण-भर में रुप बदल लेनेके पुराने अंधविश्वास को पुख़्ता करने के लिए सूपर्णखां जैसे काल्पनिक पात्र के नाम का इस्तेमाल किया गया है। कितनी अजीब बात है कि जब कृश किसीकी सहायता (!) करने के लिए पलक झपकते मास्क और लबादा पहनकर सैकड़ों मील दूर प्रकट हो सकता है और उसके इसचमत्कारको जस्टीफ़ाई करने के लिए आपको रावण या इंद्र महाराज का उदाहरण देने की ज़रुरत नहीं पड़ती तो सूपर्णखां काहे घसीट लाए भैय्या !?

इस
फ़िल्म से एक बार फ़िर यह साबित होता है कि अंग्रेज़ी सीख लेने, टाई और स्कर्ट पहन लेने भर से आदमी प्रगतिशील नहीं हो जाता। पैसे हों तो ख़ाप का मुखिया भी नए से नया वैज्ञानिक उपकरण ख़रीद सकता है। बात तो तब है जब वह अपने गांव में आविष्कार का माहौल पैदा कर सके। आजकल, रोज़ाना, हम देख ही रहे हैं कि टाई कोट पहननेवालों एंकरों और दाढ़ीवाले बाबाओं में कपड़ों और भाषा के अलावा कोई और फ़र्क ढूंढना मुश्क़िल होता जा रहा है। बल्कि कई दाढ़ीवाले बाबा तो बीच-बीच में दो-चार सेंटेंस अंग्रेज़ी के भी मार देते हैं। किसी भी मूल्य के आप कोई चार प्रतीक तय करके बैठ जाएंगे तो यही परिणाम होगा। अवसवरवादी रुप बदलने में देर नहीं लगाते। पल-भर में तो नहीं लेकिन दो-चार दिन काफ़ी होते हैं।

पल
-भर में रुप बदल लेने के अंधविश्वासों को पुख़्ता करने वाली इन फ़िल्मों के निर्माता-निर्देशक-अभिनेता प्रोमो के दौरान अपनी और फ़िल्म की अपरोक्ष तारीफ़ में जब यह कहते हैं कि यार मेकअप के दौरान चार-चार घंटे एक ही पोज़ में बैठना पड़ता था, तो और हंसी आती है। (माना कि इन सब कामों में भी मेहनत कम नहीं है फ़िर भी) पहली बात तो यह है कि मेकअप हो या सिक्स पैक एब्स हों या वज़न घटाना हो, कोई भी काम अभिनय की जगह नहीं ले सकता। दूसरे, मेकअप की ज़रुरत क्या थी, मंत्र पढ़ते और रुप बदल लेते। जिस अंधविश्वास का प्रचार फ़िल्म के ज़रिए कर रहे हो, उसे ख़ुद पर भी तो लागू करके दिखाते ज़रा!

अंधविश्वासों
के कचरे में गले-गले तक फंसे, कराहते देश में अरबों रुपए लगाकर, विज्ञान का इस्तेमाल विज्ञान के ही खि़लाफ़ करनेवाली ऐसी फ़िल्मों की व्याख्या एक ही शब्द में करनी हो तो कौन-सा शब्द इस्तेमाल किया जाना चाहिए ?



-संजय ग्रोवर


10-11-2013

(अपने फ़ेसबुक ग्रुप नास्तिकTheAtheist से)